रवींद्रनाथ टैगोर: वो दीप जो बुझा नहीं, उजाला बन गया

रवींद्रनाथ टैगोर का नाम एक ऐसी दीपशिखा है, जो भारत के सांस्कृतिक, साहित्यिक और आध्यात्मिक क्षितिज पर युग-युगांतर तक दैदीप्यमान रहेगी। वे न केवल कवि, साहित्यकार या संगीतज्ञ थे, अपितु एक युग-नायक थे, जिनके दर्शन ने मानवता को नवीन पथ प्रदर्शित किया, जिनकी कृतियों ने हृदय को छुआ और जिनके जीवन ने सत्य, सौंदर्य और प्रेम का अमर संदेश विश्व-वसुंधरा पर प्रसारित किया।
उनकी पुण्यतिथि, 7 अगस्त 1941, केवल एक तिथि नहीं, वरन एक पावन स्मृति है जो उनके विचारों को पुनर्जागृत करने, उनकी शिक्षाओं को आत्मसात करने और उनके स्वप्नों को मूर्त रूप देने का काम करती है। टैगोर का जीवन एक ऐसी गाथा है, जो प्रत्येक मानव को प्रेरणा देती है कि वह अपनी सृजनशक्ति को प्रज्वलित करे, प्रकृति से प्रेम करे और मानवता के प्रति अपने उत्तरदायित्व को आत्मसात करे।
कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुर बाड़ी में 1861 में जन्मे रवींद्रनाथ एक ऐसे परिवार में पले-बढ़े, जहाँ कला, साहित्य और दर्शन की सुगंध हर साँस में बसी थी। उनके पिता देवेंद्रनाथ टैगोर ब्रह्म समाज के प्रखर विचारक थे और परिवार का वातावरण विचारों की स्वतंत्रता से सराबोर था। छोटी आयु में ही रवींद्रनाथ ने कविता की रचना शुरू कर दी थी। आठ वर्ष की उम्र में लिखी उनकी कविताएँ उनकी असाधारण प्रतिभा का परिचय देती थीं।
गीतांजलि से टैगोर की विश्ववंदिता तक की यात्रा
पारंपरिक स्कूली शिक्षा उन्हें बाँध नहीं सकी; उन्होंने विश्व साहित्य, संगीत और प्रकृति के अध्ययन में स्वयं को डुबो दिया। यह स्वतंत्रता उनकी रचनात्मकता का आधार बनी, जिसने उन्हें एक कवि से कहीं अधिक दार्शनिक, चित्रकार, शिक्षाविद् और समाज सुधारक बनाया। टैगोर की साहित्यिक यात्रा का सर्वोच्च शिखर था गीतांजलि, वह काव्य संग्रह जिसने उन्हें 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिलाया।
यह सम्मान केवल उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं था, बल्कि यह भारत की बौद्धिक शक्ति का वैश्विक मंच पर उद्घोष था। वे पहले एशियाई थे, जिन्हें यह पुरस्कार मिला, जिसने उपनिवेशवादी मानसिकता को गहरी चुनौती दी। गीतांजलि की कविताएँ मानव और ईश्वर के बीच एक आध्यात्मिक संनाद हैं। इनमें भक्ति की गहराई, प्रेम की कोमलता और जीवन की नश्वरता का ऐसा चित्रण है जो हृदय को गहरे तक उद्वेलित करता है।
उनकी पंक्तियाँ, जैसे जहाँ मन भयरहित हो और सिर ऊँचा हो, आज भी स्वतंत्रता और आत्मसम्मान की प्रेरणा देती हैं। टैगोर ने केवल कविता ही नहीं, बल्कि गोरा, घरे बाइरे, चोखेर बाला जैसे उपन्यासों, काबुलीवाला और डाकघर जैसे नाटकों और असंख्य कहानियों व निबंधों के माध्यम से भारतीय समाज की जटिलताओं, मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक कुरीतियों को उजागर किया। उनकी रचनाएँ केवल साहित्य नहीं, बल्कि जीवन दर्शन का एक अनमोल कोष हैं।

टैगोर की शिक्षा, राष्ट्रवाद और मानवीय दर्शन
रवींद्रनाथ टैगोर केवल एक साहित्यकार नहीं, अपितु एक दूरदर्शी समाज सुधारक थे, जिनकी शिक्षा के प्रति दृष्टि आज भी प्रासंगिकता की प्रखर ज्योति है। 1901 में, उन्होंने शांतिनिकेतन में एक प्रयोगात्मक विद्यालय की नींव रखी, जो कालांतर में विश्वभारती विश्वविद्यालय के रूप में अमर हुआ। यहाँ उन्होंने भारतीय गुरुकुल पद्धति और आधुनिक पश्चिमी शिक्षा का अलौकिक समन्वय रचा। उनका विश्वास था कि शिक्षा का लक्ष्य केवल उपाधि नहीं, बल्कि व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास है।
प्रकृति की गोद में, संगीत, कला और नाट्य के माध्यम से उनकी शिक्षा पद्धति विद्यार्थियों में सृजनशीलता, संवेदनशीलता और नैतिकता का बीज बोती थी। विश्वभारती आज भी उनकी इस दृष्टि का सजीव प्रतीक है, जो शिक्षा को आत्मा की जागृति का पावन साधन मानता है। उनका राष्ट्रवाद भी उनकी विचारधारा की भाँति अनन्य था। टैगोर अंधराष्ट्रवाद के प्रखर विरोधी थे, उनका विश्वास था कि सच्चा राष्ट्रप्रेम मानवतावाद की उदात्त प्रेरणा से उपजता है। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम का समर्थन किया, किंतु हिंसा का सदा विरोध किया।
1919 के जलियांवाला बाग नरसंहार के पश्चात, उन्होंने नाइटहुड की उपाधि अस्वीकार कर उपनिवेशवाद के विरुद्ध साहसी सांस्कृतिक विद्रोह का परचम लहराया। उनकी रचना एकला चलो रे स्वतंत्रता सेनानियों के लिए प्रेरणा का मंत्र बनी, जो साहस और आत्मनिर्भरता का अमर संदेश देती है। टैगोर का दर्शन था कि सच्ची स्वतंत्रता केवल बाह्य बंधनों से मुक्ति नहीं, अपितु अंतर्मन की जागरूकता और नैतिक साहस से प्राप्त होती है।
रवींद्रनाथ टैगोर की कला और काव्य का अमर स्वरूप
टैगोर की संगीतमय प्रतिभा उनकी सृजनशीलता का एक अनुपम रत्न थी, जो सौंदर्य और भाव की अनंत गहराइयों में समाया है। उन्होंने लगभग 2,230 गीतों की रचना की, जिन्हें रवींद्र संगीत के रूप में अमरत्व प्राप्त है। इन गीतों में प्रकृति का अलौकिक सौंदर्य, प्रेम की नाजुक संवेदनाएँ, भक्ति की गहन तन्मयता और देशप्रेम की प्रचंड ज्वाला समाहित है। भारत का राष्ट्रगान जन गण मन और बांग्लादेश का आमार सोनार बांग्ला उनकी कालजयी रचनाएँ हैं, जो उनके वैश्विक प्रभाव की सशक्त गवाही देती हैं। श्रीलंका का राष्ट्रगान भी उनकी प्रेरणा से ओतप्रोत है।
उनकी चित्रकला उनकी बहुआयामी प्रतिभा का एक और अनमोल आयाम थी। जीवन के उत्तरार्ध में, उन्होंने लगभग 3,000 चित्रों का सृजन किया, जिनमें भारतीय लोककला, आदिवासी रेखांकन और प्रतीकात्मकता का अद्भुत समन्वय झलकता है। उनकी कला केवल सौंदर्य का आलंकारिक प्रदर्शन नहीं, अपितु उनके दर्शन और भावनाओं का दृश्यात्मक साकार रूप थी। प्रत्येक रंग और रेखा मानो उनकी कविता का ही सजीव विस्तार हो।

उनकी चित्रकारी में मानव मन की जटिलताएँ और प्रकृति का रहस्यमयी आकर्षण जीवंत हो उठता है, जो दर्शक को एक गहन चिंतन और सौंदर्यबोध की यात्रा पर ले जाता है। जब 7 अगस्त 1941 को रवींद्रनाथ टैगोर ने इस नश्वर संसार को अलविदा कहा, तो एक युग का सूर्यास्त हुआ, किंतु उनकी रचनाएँ, उनके दर्शन और उनकी शिक्षाएँ आज भी सूर्य की भाँति प्रखर और जीवंत हैं। उनकी पुण्यतिथि हमें उनके असाधारण जीवन से प्रेरणा ग्रहण करने का पावन अवसर प्रदान करती है।
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