आत्मा की आवाज लिमिटेड

राजनीति के क्षेत्र में आजकल आत्माएँ बड़ी सक्रिय हो गई हैं। पहले आत्मा मनुष्य को मोक्ष का मार्ग दिखाती थी, अब वह नेताओं को टिकट का रास्ता बताती है। पहले साधु-संत गुफाओं में बैठकर आत्मा की आवाज सुनते थे, अब नेताजी पाँच सितारा होटल में नाश्ता करते हुए बड़े आराम से अपनी आत्मा की आवाज सुन लेते हैं। हर चुनाव से पहले नेताओं की आत्माएँ ऐसे जाग उठती हैं मानो देशभर में कोई आत्मिक मेला लग गया हो।
कोई नेता कहता है -मेरी आत्मा ने कहा कि सच्ची सेवा अब उधर करनी चाहिए। जनता हँसकर कहती है -लगता है आत्मा ने जनता सेवा नहीं, मंत्री सेवा कहा होगा। अब आत्मा का रूप भी काफी बदल गया है। पहले वह ध्यान में आती थी, अब सूचना के रूप में आती है। जब तक टिकट की सूची नहीं आती, आत्मा मौन रहती है और जैसे ही नाम छूटता है, आत्मा बेचैन होकर कहती है – बेटा, अबकी बार इस पार्टी में तेरा काम समाप्त। दूसरी दिशा में प्रकाश है, वहीँ चलो। और नेताजी चल पड़ते हैं। जहाँ कल तक वे जिस दल को देश विरोधी बता रहे थे, आज उसी मंच से राष्ट्रहित में भाषण दे रहे होते हैं।
नेताओं की आत्मा: टिकट और सत्ता की अदृश्य शक्ति
जनता भी अब समझ गई है कि राजनीति में आत्मा नहीं बदलती, बस आवाज़ की दिशा बदल जाती है। कई आत्माएँ तो इतनी फुर्तीली होती हैं कि नेताजी के शरीर से पहले ही वहाँ पहुँच जाती हैं। सुबह तक नेता पुरानी पार्टी में रहते हैं, शाम तक उनकी आत्मा नई पार्टी के स्वागत समारोह में प्रसन्न खड़ी होती है। पत्रकार पूछते हैं – नेताजी, इतनी जल्दी कैसे? उत्तर आता है- मेरी आत्मा उड़न छू है, वह पहले पहुँच जाती है, मैं बाद में अनुसरण करता हूँ।
कुछ आत्माएँ तो अब संवेदनशील संस्थान बन गई हैं। जैसे ही मंत्रीमंडल की सूची बदलती है, आत्मा भी अपनी दिशा बदल लेती है। वह कहती है- जहाँ कुर्सी, वहीं कर्तव्य। एक पत्रकार ने प्रश्न किया- नेताजी! आपकी आत्मा हर पाँच वर्ष में दिशा क्यों बदलती है? नेता मुस्कुराए और बोले- आत्मा स्थिर नहीं रहती, वह भी राजनीतिक परिस्थितियों के अनुसार प्रवाहमान तत्व है। अब आत्मा की नई परिभाषा बन चुकी है- आत्मा वह अदृश्य शक्ति है जो टिकट की गंध सूँघकर दिशा बदल ले।

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राजनीति में नेताजी की आत्मा और सत्ता की चाल
कुछ आत्माएँ इतनी अनुभवी हैं कि एक साथ तीन दलों को प्रेरणा दे देती हैं- देश सेवा सबका धर्म है, पर मंत्रालय मेरा रहना चाहिए। कई बार तो आत्मा को भी भ्रम हो जाता है कि वह किस दल में है। वह ऊपर से भगवान से शिकायत करती हुई कहती है – हे ईश्वर! इन नेताओं ने मुझे दल-बदल की सरकारी गाड़ी बना दिया है, कभी इस ओर, कभी उस ओर। नेताजी की आत्मा विश्राम नहीं करती। वह कहती है- मुझे वही शांति चाहिए जो मंत्री की कुर्सी पर बैठने से मिलती है।
जनता अब हर बार वही पुराना वाक्य सुनती है – मेरी आत्मा ने कहा कि अब सच्चा विकास इसी दल में है। जनता हँसकर कहती है -हाँ हाँ, आत्मा ने नहीं कहा होगा, अलमारी में रखा टिकट बोल पड़ा होगा। कभी-कभी लगता है कि यदि आत्माएँ सचमुच बोलने लगीं, तो सबसे पहले कहेंगी-हे नेताजी! थोड़ी देर के लिए चुप रहो, अब हमें भी आत्मशांति चाहिए। लेकिन नेताजी की आत्मा नहीं रुकती। वह कहती है – जब तक कुर्सी घूमती रहेगी, मैं भी घूमती रहूँगी। राजनीति में अब आत्मा की आवाज नहीं, मौक़े की गूंज सुनाई देती है। हर चुनाव से पहले वही पुराना संवाद- मेरी आत्मा ने कहा है कि अबकी बार नई पार्टी ही देश की सच्ची सेवा करेगी। और जनता मन ही मन मुस्कुरा देती है- सच तो यह है कि अब आत्मा की नहीं, सत्ता की आवाज सुनाई देती है।
रामविलास जांगिड़
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