सरेंडर बनाम शस्त्र समर्पण!

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छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में वर्षों से गूँजती बंदूकों की आवाजें अब थमती नजर आ रही हैं। बीजापुर जिले में 158 और दंतेवाड़ा में 140 नक्सलियों ने जंगल का रास्ता छोड़ दिया है, जबकि एक दिन पहले ही कांकेर और सुकमा में 77 ने हथियार डाले थे। यह घटनाक्रम महज संख्याओं का खेल नहीं, बल्कि भारत की आंतरिक सुरक्षा के परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि ये नक्सली इसे सरेंडर नहीं मानते; वे कहते हैं कि उन्होंने हथियार सरकार को सौंपे हैं और मुख्यधारा से जुड़कर उनका संघर्ष बिना हिंसा के जारी रहेगा।?

सयाने याद दिला रहे हैं कि नक्सलवाद, जो 1967 के नक्सलबाड़ी विद्रोह से उपजा था, आज भी आदिवासी क्षेत्रों में गरीबी, शोषण और विकास की कमी को हथियार बनाकर खड़ा है। छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में यह समस्या सबसे गंभीर है, जहाँ माओवादी विचारधारा के नाम पर सशस्त्र संघर्ष ने हजारों जानें ली हैं। हालिया घटनाएँ केंद्र सरकार की समर्पण नीति और राज्य की पुनर्वास योजनाओं की सफलता का संकेत देती हैं। लेकिन नक्सलियों का बयान कि संघर्ष जारी रहेगा एक चेतावनी है।

मुख्यधारा में नक्सलियों की वापसी और नई चुनौतियाँ

यह दर्शाता है कि वैचारिक स्तर पर माओवाद जिंदा है; वे अब राजनीतिक मंचों, ट्रेड यूनियनों या सामाजिक आंदोलनों के जरिए अपनी लड़ाई लड़ सकते हैं। यानी, आंतरिक सुरक्षा एजेंसियों को सतर्क रहना होगा, क्योंकि शांतिपूर्ण संघर्ष भी अस्थिरता पैदा कर सकता है! इस घटनाक्रम के प्रभाव बहुआयामी होंगे। सबसे पहले, सुरक्षा के मोर्चे पर। राज्य में शांति स्थापित होने से निवेश बढ़ेगा – खनन, वन उत्पाद और पर्यटन जैसे क्षेत्रों में।

आदिवासी समुदाय, जो नक्सलवाद और सुरक्षा अभियानों के बीच पिसता रहा है, अब विकास की मुख्यधारा में शामिल हो सकता है। सरकार की पुनर्वास नीति के तहत इन पूर्व नक्सलियों को नौकरी, शिक्षा और आर्थिक सहायता मिलेगी, जो अन्यों को प्रेरित करेगी। लेकिन प्रभाव का नकारात्मक पहलू भी है। यदि ये नक्सली मुख्यधारा में आकर भी संघर्ष जारी रखें, तो यह लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को प्रभावित कर सकता है।

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वे स्थानीय चुनावों में हिस्सा लेकर या एनजीओ बनाकर आदिवासी अधिकारों की लड़ाई लड़ सकते हैं, जो सराहनीय है; लेकिन यदि यह माओवादी एजेंडे का विस्तार बने, तो विभाजनकारी साबित होगा! भावी संभावनाओं की बात करें, तो यह घटनाक्रम नक्सल समस्या के समाधान की दिशा में एक बड़ा कदम हो सकती है। यदि सरकार इन पूर्व नक्सलियों को प्रभावी रूप से मुख्यधारा में शामिल करे, तो यह समर्पण की लहर पैदा करेगा।

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लोकतांत्रिक रास्तों पर नक्सलवाद का नया मोड़

केंद्र की नई नक्सल नीति – जो विकास, संवाद और सुरक्षा को जोड़ती है – इसकी कुंजी है। लेकिन चुनौतियाँ कम नहीं। पहली, वैचारिक स्तर पर। माओवादियों का दावा कि संघर्ष जारी रहेगा इंगित करता है कि वे अब गैर-हिंसक तरीकों से सिस्टम को चुनौती देंगे। इससे राजनीतिक पार्टियाँ प्रभावित होंगी; वामपंथी दल उन्हें अपना सकते हैं, जिससे विधानसभाओं में नई बहसें शुरू होंगी। दूसरी, आर्थिक मोर्चा। छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में खनिज संपदा पर कॉरपोरेट हितों और आदिवासी अधिकारों का टकराव जारी है। यदि पूर्व नक्सली इस मुद्दे को उठाएँ, तो यह पर्यावरण और विकास की बहस को नई ऊर्जा देगा।

कुल मिलाकर, यह घटना आशा की किरण है, लेकिन सावधानी की माँग करती है। नक्सलवाद का मूल कारण – असमानता और शोषण – अभी बरकरार है। सरकार को सिर्फ हथियार डलवाने पर नहीं, बल्कि आदिवासियों के सशक्तीकरण पर ध्यान देना होगा। यदि ऐसा हुआ, तो जंगलों की बंदूकें हमेशा के लिए शांत हो सकती हैं और संघर्ष लोकतांत्रिक रास्तों पर चलेगा। लेकिन यदि लापरवाही बरती गई, तो यह शांतिपूर्ण संघर्ष नई अराजकता का बीज बो सकता है। भारत की आंतरिक सुरक्षा इसी संतुलन पर टिकी है – हिंसा का अंत हो, लेकिन न्याय की जीत भी।

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