सऊदी व पाक रक्षा समझौता भारत के लिए क्यों चिंता का विषय नहीं?

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दिलचस्प यह है कि नई दिल्ली से टकराव के बाद इस्लामाबाद अपनी कोमल कूटनीति के कारण ट्रंप की गुड बुक्स में प्रवेश करने में सफल हो गया है। चीन उसका हर मौसम का दोस्त है। तुर्की ने भारत के ऑपरेशन सिंदूर के दौरान उसकी मदद की। अब सऊदी अरब से उसका समझौता हो गया है। इससे यह तो प्रतीत होता है कि कूटनीतिक दृष्टि से पाकिस्तान अकेला नहीं पड़ा है, लेकिन इससे उसकी बुनियादी आर्थिक व प्रशासनिक समस्याओं का समाधान नहीं होता है। पाकिस्तान आज भी एक असफल प्रयोग है, हालांकि उसके पास परमाणु हथियार हैं। वैसे कूटनीति से देश अपने-अपने ही हित साधते हैं। भारत को भी यही करना चाहिए और अपनी ताकतों पर फोकस करना चाहिए। सऊदी अरब व पाकिस्तान के बीच नया रक्षा समझौता वास्तव में रियाद के लिए तेल अवीव के विरुद्ध रक्षाकवच है। इसे लेकर भारत को चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

ऐतिहासिक तौर पर भारत व सऊदी अरब के रिश्ते हमेशा से ही अच्छे व मधुर रहे हैं, कभी कोई समस्या या विवाद नहीं रहा है। नई दिल्ली का कहना है कि रियाद से उसके रिश्ते आज की तारीख में पहले से कहीं अधिक मज़बूत हैं। इसलिए सऊदी अरब व पाकिस्तान के बीच जो नाटो जैसा समझौता हुआ है, उस पर भारत सरकार ने बहुत ही सावधानी भरी प्रतिक्रिया व्यक्त की है।

लेकिन यह सवाल भी अपनी जगह बना हुआ है कि क्या नई दिल्ली की विदेशनीति में कहीं चूक हुई है और इस समझौते का भारतीय उप-महाद्वीप पर क्या प्रभाव पड़ सकता है? नई दिल्ली का कहना है कि वह भारत के राष्ट्रीय हितों की रक्षा व हर क्षेत्र में विस्तृत राष्ट्रीय सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए समर्पित है और इस घटनाक्रम के संभावित प्रभावों का अध्ययन कर रही है। सऊदी अरब व पाकिस्तान ने आपस में एक स्ट्रेटेजिक रक्षा समझौता किया है, जिसमें विशेष रूप से कहा गया है कि अगर एक देश पर कोई आक्रमण होगा, तो वह दोनों देशों के विरूद्ध आक्रमण समझा जायेगा।

सऊदी-पाक समझौते और ऑपरेशन सिंदूर का संदर्भ

ज़ाहिर है कि यह समझौता मध्य पूर्व में इजराइल की आक्रामक हरकतों को मद्देनज़र रखते हुए किया गया है, विशेषकर तेल अवीव के हाल के कतर पर अनावश्यक हमले की पृष्ठभूमि में। लेकिन इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि यह समझौता भारत के ऑपरेशन सिंदूर के कुछ माह बाद हुआ और वह भी उस समय जब नई दिल्ली का प्रयास इस्लामाबाद में न्यू नॉर्मल थोपने का है, जो इस बात पर बल देता है कि सीमा पार से कोई भी आतंकी हरकत भारत की तरफ से सैन्य प्रतिक्रिया से नहीं बच सकती।

गौरतलब है कि ऑपरेशन सिंदूर पहलगाम में आतंकी हमले की प्रतिक्रिया में था और जिस दिन पहलगाम की निंदनीय घटना हुई, उस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सऊदी अरब के दौरे पर थे व उन्हें अपनी यात्रा अधूरी छोड़कर स्वदेश लौटना पड़ा था। बहरहाल, नई दिल्ली का कहना है कि इस समझौते, जो सऊदी अरब व पाकिस्तान के बीच दीर्घकालीन व्यवस्था को औपचारिकता प्रदान करता है, पर लम्बे समय से विचार किया जा रहा था।

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नई दिल्ली की विदेशनीति और समझौते की चुनौतियाँ

भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल का कहना है कि इस समझौते का हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा और क्षेत्रीय व ग्लोबल स्थिरता पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका अध्ययन किया जायेगा। सवाल यह है कि जब नई दिल्ली को पहले से ही मालूम था कि ऐसे समझौते के लिए प्रयास किये जा रहे हैं तो उसे रुकवाने के लिए उसने क्या कोशिशें की थीं, अगर की थीं तो वह सफल क्यों नहीं हुईं और अगर नहीं की थीं तो क्यों नहीं कीं? दूसरा यह कि जब पहले से ही मालूम था तो समझौते के संभावित प्रभावों का अंदाज़ा तो अभी तक लगा लेना चाहिए था।

जब चिड़िया खेत चुग गई, तब अध्ययन की योजना बनाने का एकमात्र अर्थ यही है कि इस संदर्भ में हमारी विदेशनीति बुरी तरह से असफल रही है। हम रात बीतने के बाद दिन में चराग जला रहे हैं। इसकी जवाबदेही निर्धारित की जानी चाहिए। ध्यान रहे कि सऊदी अरब में बहुत ही कड़े शब्दों में पहलगाम आतंकी हमले की निंदा की थी। इस समझौते पर 17 सितंबर 2025 को रियाद में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ और सऊदी अरब के राजकुमार मुहम्मद बिन सलमान ने हस्ताक्षर किये।

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हालांकि यह समझौता भारतीय उपमहाद्वीप की राजनीति को भी प्रभावित कर सकता है, लेकिन इस समय इसके दो मुख्य कारण प्रतीत होते हैं। एक, इजराइल की आक्रामक हरकतों से खाड़ी में व्यापक डर व चिंता है। दूसरा यह कि अरब देशों में तेज़ी से यह बात घर करती जा रही है कि अमेरिका उनके लिए भरोसेमंद सुरक्षा साथी नहीं है। अमेरिका के अरब देशों में बड़े-बड़े सैन्य अड्डे हैं, इनकी वजह से अरबी राजा-महाराजा यह समझे बैठे थे कि वह और उनका राजपाट सुरक्षित रहेगा, इसलिए वह गाज़ा नरसंहार पर भी खामोश रहे कि अपना काम बनता, भाड़ में जाये जनता।

रियाद-इस्लामाबाद रक्षा समझौते पर उठते सवाल

लेकिन जब ईरान ने इराक व कतर के अमेरिकी सैन्य अड्डों पर मिसाइल से हमले किये, जब यमन के शासकों की हत्या कर दी गई, जब कतर में इजराइल ने हमला किया, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप (जिन्हें कतर ने हवाईजहाज़ गिफ्ट किया था) के आश्वासन के बाद कि इजराइल दोबारा हमला नहीं करने का, तेल अवीव ने धमकी दी कि वह कतर पर फिर हमला करेगा, तो शेखों की नींद खुली और उन्हें एहसास हुआ कि ट्रंप व अमेरिका पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए अन्य व्यवस्था करनी होगी।

दोहा में आयोजित अरब-इस्लामिक सम्मेलन के बाद जो यह सऊदी अरब व पाकिस्तान के बीच आपसी रक्षा समझौता हुआ है, इसे अनेक पर्यवेक्षक रियाद के लिए बीमा पॉलिसी के तौर पर देख रहे हैं। हालांकि इन दोनों देशों के बीच सैन्य ट्रेनिंग व एक्सरसाइज तो लम्बे समय से होती रही हैं, लेकिन दो बड़े प्रश्न अब भी शेष हैं। एक, क्या अब रियाद इस्लामाबाद के परमाणु छाते के नीचे आ गया है?

दूसरा यह कि अगर पाकिस्तान का भारत से सैन्य टकराव होता है, तो क्या सऊदी अरब उसकी मदद के लिए आयेगा? इन दोनों ही प्रश्नों के उत्तर संभवत न में ही हैं। ऐसा अकारण नहीं। सबसे पहली बात तो यह है कि समझौते में रियाद को परमाणु सहयोग देना स्पष्ट नहीं है। दूसरा यह कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत व सऊदी अरब के स्ट्रेटेजिक संबंध बहुत अधिक मज़बूत हुए हैं और मोदी एक दशक में तीन बार रियाद की यात्रा कर आये हैं; वह इस साल अप्रैल में भी रियाद में थे। इसको मद्देनज़र रखते हुए यह यकीन से कहा जा सकता है कि सऊदी अरब इस्लामाबाद की खातिर नई दिल्ली से अपने रिश्ते खराब नहीं करेगा।

पाक-सऊदी रक्षा समझौते पर भारत की प्रतिक्रिया

बहरहाल, अधिक से अधिक यह समझौता दोनों रियाद व इस्लामाबाद के लिए बैकस्टॉप (अंतिम उपाय के रूप में समर्थन ताकि किसी चीज़ को बढ़ने से रोका जा सके) है। लेकिन दिलचस्प यह है कि नई दिल्ली से टकराव के बाद इस्लामाबाद अपनी कोमल कूटनीति के कारण ट्रंप की गुड बुक्स में प्रवेश करने में सफल हो गया है। चीन उसका हर मौसम का दोस्त है। तुर्की ने भारत के ऑपरेशन सिंदूर के दौरान उसकी मदद की। अब सऊदी अरब से उसका समझौता हो गया है।

शाहिद ए चौधरी
शाहिद ए चौधरी

इससे यह तो प्रतीत होता है कि कूटनीतिक दृष्टि से पाकिस्तान अकेला नहीं पड़ा है, लेकिन इससे उसकी बुनियादी आर्थिक व प्रशासनिक समस्याओं का समाधान नहीं होता है। पाकिस्तान आज भी एक असफल प्रयोग है, हालांकि उसके पास परमाणु हथियार हैं। वैसे कूटनीति से देश अपने-अपने ही हित साधते हैं। भारत को भी यही करना चाहिए और अपनी ताकतों पर फोकस करना चाहिए। सऊदी अरब व पाकिस्तान के बीच नया रक्षा समझौता वास्तव में रियाद के लिए तेल अवीव के विरुद्ध रक्षाकवच है। इसे लेकर भारत को चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

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