सवर्ण गरीबों को राहत

 Relief to the upper caste poor

आार्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्ग के लोगों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट की भी सहमति मिल गई है। पाँच न्यायाधीशों में से तीन ने आार्थिक कमज़ोर वर्गों को आरक्षण देने के सरकार के फैसले को संवैधानिक ढाँचे का उल्लंघन नहीं माना है। यानी अब यह आरक्षण जारी रहेगा। 

यह स्वागत योग्य है कि सामान्य वर्ग के लोग भी शिक्षा और सरकारी नौकरी में अब आरक्षण पा सकेंगे। सयाने याद दिला रहे हैं कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने 2019 में संविधान में 103 वाँ संशोधन करके सामान्य वर्ग (जिन्हें सवर्ण भी कहा जाता है) के लोगों को आार्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण दिया था। केंद्र सरकार के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में 40 से ज्यादा याचिकाएँ दायर हुई थीं। इन पर सुप्रीम कोर्ट की पाँच सदस्यीय संविधान पीठ ने लंबी सुनवाई के बाद अब फैसला सुनाया है। हालाँकि यह फैसला खंडित है, लेकिन 2 के मुकाबले 3 न्यायाधीशों ने इस आरक्षण को संविधान-सम्मत माना है। इस आरक्षण का समर्थन करने वाले न्यायाधीशों ने स्वीकार किया है कि केवल आार्थिक आधार पर दिया जाने वाला आरक्षण संविधान के मूल ढाँचे और समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है। आरक्षण की 50 प्रतिशत तय सीमा के आधार पर भी यह आरक्षण मूल ढाँचे का उल्लंघन नहीं है, क्योंकि 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा अपरिवर्तनशील नहीं है। उन्होंने इसे किसी भी तरह का पक्षपात मानने से भी इन्कार किया और इस बदलाव को आार्थिक रूप से कमजोर तबके को मदद पहुँचाने के तौर पर ही देखने पर ज़ोर दिया। 

यहाँ फैसले के उस निर्देश पर भी ध्यान दिया जाना जरूरी है कि किसी भी आरक्षण को अनंतकाल तक जारी नहीं रहना चाहिए, वरना वह निजी स्वार्थ में तब्दील हो जाता है। मूल बात यह है कि आरक्षण सामाजिक और आार्थिक असमानता को खत्म करने के लिए है। बेशक विकास और शिक्षा ने असमानता की इस खाई को कम करने का काम किया है, लेकिन अभी बहुत काम किया जाना बाकी है। 

इस आरक्षण का विरोध करने वाले न्यायाधीशों को भी हालाँकि आार्थिक रूप से कमजोर और गरीबी झेलने वालों को आरक्षण देने में कोई बुराई नहीं दिखाई दी, लेकिन उन्हें यह भेदभाव और पक्षपातपूर्ण लगा। उल्लेखनीय है कि संविधान पीठ के बहुमत वाले सदस्यों ने फैसले में आार्थिक रूप से कमजोर वर्गों को आरक्षण इसलिए जरूरी माना है कि इससे समतावादी समाज के लक्ष्य की ओर एक सर्व समावेशी तरीके से आगे बढ़ना सुनिश्चित किया जा सकेगा।

इस फैसले के बाद यह आशंका भी जताई जा रही है कि इससे गुर्जर या मराठा आरक्षण आदि की माँग करने वाले समुदायों या जाति समूहों के आंदोलन भी नए सिरे से उभर सकते हैं। यह बात अलग है कि उनकी व्यवस्था पहले से स्वीकृत 50 प्रतिशत के भीतर ही होनी है, जबकि गरीब सवर्णों का आरक्षण उस सीमा से बाहर अर्थात सामान्य वर्ग के भीतर से ही दिया गया है।

वैसे इस आरक्षण पर अमल करना आसान नहीं होगा। आार्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण देने के लिए इसका सीमांकन बेहद ज़रूरी होगा। अगर देश में आज भी 80 प्रतिशत जनसंख्या को मुफ्त राशन दिए जाने की ज़रूरत है, तो 50 प्रतिशत सामाजिक और 10 प्रतिशत आार्थिक आधार पर आरक्षण शायद ही पर्याप्त साबित हो! ऊपर से चुनावी राजनीति के दंद-फंद में अगर फँस गया, तो समझिए कि गई भैंस पानी में! इसलिए सब राजनैतिक दलों को दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर इस आरक्षण के लाभाार्थियों की सीमा तय करनी होगी, बनी-बनाई परिभाषाओं से काम नहीं चलेगा।  

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