सियासत से लेकर सिनेमा तक हर किसी को संजय दत्त की इतनी फिक्र क्यों है?

Why is everyone so worried about Sanjay Dutt? 1july2018
अगर संजय इतने ही शिष्ट और सभ्य नागरिक थे, तो क्या अदालत और देश की क़ानून व्यवस्था जान-बूझकर उन्हें परेशान कर रही थी? जब देश की वित्तीय राजधानी इतिहास की सबसे बड़ी अातंकी साजिश का शिकार हुई थी, तब उन्होंने अपने घर में एके-56 जैसा असलाह रखने की ग़ैर-क़ानूनी हरकत नहीं की थी? क्या उन्होंने अपने घर की पार्किंग में हथियारों  और गोला बारूद से लदे ट्रक को रात भर खड़े करने की जगह नहीं दी थी? भले ही बाद में यह कहा जाता रहा हो कि उन्हें नहीं मालूम था कि ट्रक में क्या है? लेकिन वे इतने भोले तो कभी भी नहीं थे कि इस बात का एहसास न कर पाते कि वे जिन लोगों के साथ उठ-बैठ रहे थे, वे कैसे लोग थे?

हिन्दुस्तान के लोग अभी भूले नहीं होंगे कि संजय दत्त को न सिर्फ पुणे की यरवदा जेल में कैद रहते हुए बार-बार पेरोल दी गई बल्कि उन्हीं स्थितियों और तर्कों में दूसरों को नहीं दी गई। यही नहीं, जेल में किये गये उनके अच्छे व्यवहार के अाधार पर तमाम नियमों की उपेक्षा करते हुए उन्हें समय से पहले जेल से रिहा कर दिया गया। हैरानी की बात तो यह है कि जब उन्हें अदालत के अादेश पर जेल जाना पड़ा था, तो पूरे बॉलीवुड ने कुछ इस किस्म का शोक प्रदर्शित किया था, जैसे अदालत ने कोई बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो। यहां तक कि बॉलीवुड के कई दिग्गजों ने तर्क दिया था कि अदालत को सोचना चाहिए था कि उनके जेल जाने से कितने करोड़ रूपये दांव पर लग जाएंगे। मानो अदालत की जिम्मेदारी न्याय व्यवस्था बरक़रार रखने की न होकर संजय दत्त पर लगे बाज़ार के पैसों की देख-रेख की हो।

कल्पना कीजिए कि संजय दत्त जैसी बिगड़ैल जीवनी अगर किसी और की होती, तो क्या उसे फिल्म बनाने का मैटीरियल समझा जाता? उनकी जगह कोई और होता तो उसे अपनी जिंदगी में क्या जिंदगी के बाद भी वैसी सहानुभूतियों के लायक नहीं समझा जाता। उनकी जिंदगी में या उनकी पूरी शख्सियत में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे किसी को कोई प्रेरणा मिले। इसलिए अव्वल तो उनकी बायोग्राफी पर फिल्म बनाना उतना ही ग़ैर-ज़रूरी था, जितना कि मोहम्मद अज़हरूद्दीन की जिंदगी पर। लेकिन हैरानी की बात यह है कि संजय की जिंदगी के जो काले पन्ने हैं, उन्हें हर कोई इतनी सहानुभूति से देखता है कि मानो उनसे हिंदुस्तान की तक़दीर बदल गई हो या यह कोई राष्ट्रीय उपलब्धि हो।

29 जून, 2018 को उनकी जीवनी पर बनी फिल्म के रिलीज होते ही, बॉलीवुड के तमाम दिग्गजों ने उनकी मासूमियत और बदनसीबी का ऐसा गुणगान करना शुरू कर दिया था, मानो उसकी राष्ट्रीय ज़रूरत हो।

संजय जब महज 10 साल के थे, तभी सिगरेट पीने लगे थे। पिता के सामने ही पूरी सिगरेट पीकर अपने दुस्साहसी और किसी को कुछ न समझने की अपनी मंशा ज़ाहिर कर चुके थे। लेकिन बॉलीवुड के दिग्गज इसका कुछ इस तरह से ज़िक्र करते हैं, मानो यह मासूमियत की कोई परम अदा हो। वे जब 18 साल के थे, तो तमाम किस्म के ड्रग्स लेने लगे थे और 21 साल की उम्र तक अाते-अाते इसके दलदल में बुरी तरह धंस गये थे। जिस कारण उन्हें बाद में कई सालों तक पुनर्वास केंद्र में भी रहना पड़ा।

मगर इस बात को भी लोग किसी अमीर बेटे का बिगड़ैलपना मानने को तैयार नहीं हैं बल्कि वे इसे एक बिना मां के बेटे का भावनात्मक भटकाव मान रहे हैं। यह कैसी एकतरफा सहानुभूति का रेला है। एक तरफ इस देश में सैकड़ों नहीं, बल्कि हज़ारों गरीब लोगों के जेल में बंद होने को यहां का खाता-पीता मध्यवर्ग हिकारत और अपराध के नज़रिये से देखता है, तो दूसरी तरफ संजय की इन्हीं हरकतों को उनके भावनात्मक भटकाव की अभिशाप गाथा मान लेता है।

अाखिर यह दोगलापन क्यों? क्या सिर्फ इसलिए कि उन्होंने पूरे समय क़ानून को मानने और उसकी इज़्जत करने का जीवंत अभिनय किया? क्या इसलिए कि वह सुनील दत्त जैसे एक सज्जन पिता के पुत्र थे? क्या इसलिए कि वह चुंबकीय अाकर्षण वाली नरगिस जैसी अदाकारा के बेटे थे, क्या इसलिए कि वह बचपन में ही मां से बिछुड़ गये थे? या इस वजह से कि संजय दत्त का अंडरवर्ल्ड की दुनिया में जिन लोगों से कनेक्शन था, या कौन जाने अब भी हो, उनसे लोग जितना सार्वजनिक रूप से डरते थे, उससे कई गुना ज़्यादा अकेले में डरते हैं? अाखिर एक देश में एक ही जैसे गुनाह करने वाले लोगों को अलग-अलग नज़रों से कैसे देखा जा सकता है?

संजय ने कोई छोटा-मोटा गुनाह नहीं किया था। वह अब तक के सबसे बड़े और व्यवस्थित अातंक की साजिश के बाक़ायदा हिस्सेदार थे। लेकिन पिछले एक पखवाड़े से जिस तरह उनकी मासूमियत के अाख्यान का ग्रामोफोन बॉलीवुड में बज रहा है, जिस तरह से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से उनकी फिल्म देखे जाने के लिए अाम लोगों को मानसिक रूप से तैयार किया जा रहा है, वह बहुत चालाक कारोबारी चाल है। वास्तव में वह महज बिजनेस के लिए एक सजा भोग चुके अपराधी को महान बनाने की अाख्यानिक प्रक्रिया है।

- लोकमित्र
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