जरूरी है एकजुट हों महिला जनप्रतिनिधि
पंचायती राज व्यवस्था के तहत 35 फीसदी से 50 फीसदी तक सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गई हैं ताकि महिलाएं ग्रामीण विकास में सािढय भूमिका निभाते हुए अपने समुदाय का नेतृत्व करें। लेकिन दुर्भाग्य से यह लोकतांत्रिक उद्देश्य ज्यादातर जगहों में प्रॉक्सी सरपंच या सरपंच पति के पाव्यूह में फंसकर रह गया है। सवाल है इस पाव्यूह से महिला नेतृत्व का उद्देश्य कैसे मुक्त हो?
देश की आजादी को आगामी 2047 में सौ वर्ष पूरे हो जाएंगे। हमने 15 अगस्त 2023 को आजादी का अमृत महोत्सव मनाया था। लेकिन देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं में अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाली महिलाएं, आज भी अपने पतियों की छाया से मुक्ति के लिए छटपटा रही हैं। ग्राम पंचायतों, नगर पालिकाओं, नगर निगमों, विधानसभा तथा लोकसभा जहां पर भी महिलाएं प्रतिनिधित्व का दायित्व निभा रही हैं, वहां वे आमतौर पर नाममात्र की प्रतिनिधि बनकर रह गई हैं।
दरअसल उनके राजनैतिक प्रतिनिधित्व क्षेत्र में अभी भी उनके पतियों का ही वर्चस्व है। सबसे ज्यादा खराब स्थिति सरपंच और पार्षद के पदों पर है। आमतौर पर इन पदों पर महिलाओं की स्थिति पति सरपंच और पति पार्षद की होकर रह गई है। कहने का मतलब यह कि कागजों में तो इन पदों पर महिलाएं हैं, लेकिन हकीकत में इन पर इनके पति ही काबिज हैं।
महिला नेतृत्व सशक्तिकरण के लिए समिति के सुझाव और उपाय
देश के लोकतंत्र में महिला नेतृत्व को शक्ति देने के लिए हाल में केन्द्र सरकार द्वारा गठित एक समिति ने जो रिपोर्ट दी है, वह बताती है कि यह स्थिति कितनी जटिल है। यह स्थिति महज नकली जनप्रतिनिधित्व की ही नहीं है बल्कि स्त्रा सशक्तिकरण में भी यह स्थिति बाधा बन रही है। महिला जनप्रतिनिधियों के कार्यों में हस्तक्षेप करने तथा उनके नाम पर पतियों व परिजनों द्वारा रिश्वत, राजनीति करने जैसे आरोपों के बाद लंबे समय से इस बात पर बहस हो रही है कि महिलाओं को स्वतंत्र होकर कब काम करने दिया जाएगा?
वह भी आज की स्थिति में जब हर क्षेत्र में महिला आरक्षण मौजूद है। सुप्रीम कोर्ट के कहने पर पंचायती राज मंत्रालय ने वर्ष 2023 के सितंबर माह में एक समिति बनाई, इसका काम था कि यह प्रधानपति जैसी कुप्रथा की जांच करेगी। एक वर्ष से अधिक समय तक जांच के बाद समिति ने अपनी रिपोर्ट पेश कर दी है, इसमें कहा गया है कि महिला जनप्रतिनिधियों को सशक्त बनाने के लिए लगातार प्रशिक्षण दिये जाने की जरूरत है।
रिपोर्ट की जो खास बात है, वह यह है कि इसमें प्रशिक्षण के लिए मैनेजमेंट, आईआईटी जैसे दक्ष संस्थानों के साथ ही महिला विधायकों-सांसदों की भागीदारी भी सुनिश्चित की जाए। समिति ने भारत सरकार के पूर्व खान सचिव सुशील कुमार की अध्यक्षता में देश के 14 राज्यों में जाकर अपनी रिपोर्ट तैयार की है। इसमें जो सबसे महत्वपूर्ण उपाय इस कुप्रथा को खत्म करने के लिए सुझाया गया है, वह यह है कि महिला जनप्रतिनिधि के काम में हस्तक्षेप करने वाले उनके पति या दूसरे रिश्तेदार-संबंधियों को दंडित किया जाए।
महिला नेतृत्व में हस्तक्षेप और सजा में असमानता पर चिंता
समिति ने जो अनेक सुझाव दिए हैं उनमें प्रॉक्सी नेतृत्व के विषय में गोपनीय शिकायतों के लिए एक हेल्पलाइन, महिला निगरानी समिति बनाने, सत्यापित मामलों में अनुकरणीय दंड, महिला लोकपाल की नियुक्ति, कानूनी सलाह, सहायता नेटवर्क के अतिरिक्त रीयल टाइम कानूनी और शासन का मार्गदर्शन दिलवाने की बात हैं। सामजिक अपराधियों को पकड़वाने में जैसे पुलिस की सहायता मुखबिर करते हैं, उसी तरह इस कुप्रथा को रोकने के लिए भी मुखबिर प्रणाली को प्रमुखता देने की बात कही गई है।
आंकड़ों में देखें तो देश की 2.63 लाख पंचायतों में, 15.03 लाख महिला जनप्रतिनिधि हैं अर्थात 46.6 प्रतिशत महिलाओं के प्रतिनिधित्व वाले क्षेत्र में वह सशक्त होकर अभी भी निर्णय नहीं ले पा रही हैं। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, ये सब वे प्रदेश हैं, जहां पर महिलाओं के कामकाज में हस्तक्षेप के सर्वाधिक मामले सामने आए हैं।
एक चिंतनीय पहलू यह भी है कि पत्नी के कामकाज में दखल के बाद सरकारी काम में भ्रष्टाचार होने पर सजा पति को कम, महिला प्रतिनिधि को अधिक मिलती है और सामाजिक तानेबाने में- महिला है यह क्या करेगी का ताना भी उसे ही सहन करना पड़ता है। इससे बड़ी कोई शर्मनाक बात नहीं हो सकती कि पत्नी की क्षमताओं को पति ही छाया प्रतिनिधि बनकर धूमिल कर रहे हैं।
महिला नेतृत्व को सशक्त करने में फिल्मों का योगदान
महिला प्रधानों की दशा-दिशा पर इसी मार्च में फिल्म असली प्रधान कौन? का प्रीमियर हुआ है। इसमें प्रधानपति सरीखी कुप्रथा पर जमकर चोट की गई है और अपने जमाने की सशक्त तथा बोल्ड अभिनेत्री नीना गुप्ता ने इसमें मजबूती के साथ मुख्य किरदार निभाकर वास्तविकता पेश की है। कहा जा सकता है कि केन्द्र सरकार की रिपोर्ट, असली प्रधान कौन? फिल्म तथा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी की पहल पर पहली बार वृंदावन में विधवा की होली इस प्रथा को खत्म करने में मील का पत्थर सिद्ध होगी।
जब विधवाओं को सामाजिक धारा में शामिल करने, सांस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए होली खेलने जैसा कार्पाम आयोजित हो सकता है, तो कोई कारण नहीं है कि जनता द्वारा चुने जाने के बाद महिला प्रतिनिधि अपने पति और परिजनों की राजनैतिक दखल की छाया से नहीं निकल सकतीं।
देश की राजनीति से ही सबक लिया जाए तो आज हमारी वित्तमंत्री, दिल्ली की मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश की राज्यपाल, देश की राष्ट्रपति जैसे पदों पर महिलाएं पूरी क्षमता के साथ काम कर रही हैं तथा उनके निर्णय समाज को एक दिशा दे रहे हैं। सोलो ट्रैवेल महिलाएं पूरी दुनिया में कर रही हैं, आजादी के बाद कितनी महिलाएं एवरेस्ट जैसी चोटी को फतह कर चुकी हैं, यहां तक कि अंतरिक्ष में भी कल्पना चावला ने बता दिया है कि अगर हिम्मत और कुछ कर गुजरने की सोच ली जाए तो महिलाएं हर क्षेत्र में आगे हैं।
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महिला नेतृत्व को सशक्त बनाने के लिए एकजुटता की आवश्यकता
ऐसी हालत में प्रधान पति-सरपंच पति की छाया से बाहर निकलने के लिए महिलाओं को खुद ही विरोध का स्वर ऊंचा करना होगा। कोई वजह नहीं है कि हर क्षेत्र में मातृशक्ति का प्रदर्शन करने वाली महिलाएं, पंचायतों को पुरुषों से कम गवर्न कर सकें। हाल में मनाए गए अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की थीम भी-इस कार्रवाई में तेजी लाना थी।
मतबल यह कि सभी महिलाओं-लड़कियों के लिए अधिकार, समानता और सशक्तिकरण के लिए तेजी से काम करना। एक अध्ययन में पाया गया है कि उत्तर प्रदेश, बिहार और असम जैसे राज्यों में महिला प्रधान पंचायत से संबंधित गतिविधियों में ज्यादा रुचि नहीं लेती थीं, जबकि अरुणाचल प्रदेश और केरल जैसे कुछ राज्यों में महिला प्रधान अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वहन गंभीरता से करती थीं।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि पंचायतों में महिला प्रतिनिधियों की नेतृत्व प्रतिभा को निखारने के लिए विभिन्न कौशल विकास कार्पाम भी शुरू किए गए हैं। उदाहरण के तौर पर, केरल में सरकारी स्तर पर कुटुंबश्री पहल संचालित की जा रही है, जिसके तहत स्वयं सहायता समूहों को शामिल किया गया है और महिला जन प्रतिनिधियों को प्रशिक्षित किया जा रहा है।
महिला जनप्रतिनिधियों को शासनगत निर्णय लेने में सक्षम बनाने के लिए दूसरे राज्यों को भी इस तरह के कार्पाम आयोजित करने चाहिए। विकासशील से विकसित होते राष्ट्र, घर के कामों में पुरुषों से अधिक भागीदारी, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी बात को प्रमुखता से रखने की क्षमता, रेलगाड़ी-ट्रक चलाने जैसे भारी काम, आर्थिक क्षेत्र में निर्णय की बेहतरीन भागीदारी भी अब इशारा कर रही है कि समय आ गया है कि एकजुटता के साथ महिलाओं को पुरुष संबंधियों के कार्य दखल से मुक्ति हेतु हर संभव कोशिश करनी होगी। -(मनोज वार्ष्णेय)
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