कुंठित शिरोमणि से मुलाकात

ज्ञानी जन कह गए हैं कि इस दुनिया में आए हैं, तो जीना ही पड़ेगा और भांति-भांति के लोगों से मिलना ही पड़ेगा। यही सोचकर हम भी कुंठित शिरोमणिजी से मिल लेते हैं। वे हर घड़ी तनाव में नजर आते हैं। बाद में पता चला कि उनके चेहरे पर तनाव बाल्यकाल से ही है। जब जन्म लिया तो जन्म का तनाव इसलिए लगातार रोते रहे। जब तक दूध की बोतल मुंह में नहीं ठूँसी, वो रोना जारी रखते थे। कुछ बड़े हुए तो स्कूल भेजने के समय पूरा परिवार टेंशनाया हुआ रहता था।

कुंठा, तुलना और दिखावे में उलझा मध्यमवर्गीय जीवन

स्कूल जाने से भयंकर विरक्ति। रो-धोकर स्कूल जाना शुरू किया और एक-एक दो-दो साल के गैप में पास भी होते रहे। इसका भी तनाव उनके चेहरे पर गहराता गया। एक तो पढ़ना नहीं और उसके बाद फेल हो गए तो रोना-धोना करना। बस इसी तरह से बड़े होते गए और पिता की मेहरबानी से एक विभाग में छोटी-मोटी नौकरी मिल गई। बड़ी नौकरी नहीं पा सके, इसका भी चेहरे पर तनाव। बड़े अफसर जमकर रिश्वत खा रहे थे,लेकिन इनको कुछऊ नहीं मिल पा रहा था, इस बात का निरंतर तनाव।

बहुत पहले जब पैदल चलते थे, तो साइकिल वालों को देखकर कुढ़ते रहते थे। कुछ समय बाद जब साइकिल पर चलने लगे, तो स्कूटर वालों को देखकर गरियाया करते थे। धीरे-धीरे कुछ पैसे जोड़ कर किस्तों में स्कूटर खरीद ली, तो अब कार वालों को देखकर कुढ़ने लगे। एक दिन सेकंड हैंड कर खरीद ली तो महंगी कार वालों को देखकर बड़बड़ाने लगे कि सब साले, नंबर दो वाले हैं।

एक दिन हमने उन्हें समझाया कि नंबर दो वाले नहीं, यह ईएमआई वाले हैं। आप ही की तरह प्रदर्शन के मारे। मध्यमवर्गीय लोग हैं लेकिन दिखावे का शौक है इसलिए ये भी किस्तों में महंगी कार लेकर घूम रहे हैं। हमारे समझाने के बाद भी कुंठित शिरोमणिजी मुंह बिचकाने से बाज नहीं आए। फिर वह भ्रष्टाचार पर आ गए। कहने लगे, हमारे दफ्तर में बड़े अफसर और बड़े बाबू रिश्वत खाते रहते हैं। बड़ा दुख होता है कि देश कहां जा रहा है।

हम बोले, क्या आप तक रिश्वत की रकम नहीं पहुंचती, तो कहने लगे, बिल्कुल नहीं पहुंचती। सब साले देश का बंटाढार कर रहे हैं। समाजवाद का सिद्धांत है, मिल बाँट कर खाओ। लेकिन सब पूंजीवादी आचरण कर रहे हैं। हमें कुछ नहीं मिलता। एक दिन मैं इन सबकी दुनिया हिला दूंगा। मुझे लगा ये हास्य धारावाहिक तारक मेहता का उल्टा चश्मा देखते हैं इसलिए उस धारावाहिक के पात्र पत्रकार पोपटलाल की आत्मा इनमें सवार हो गई है। इसलिए दुनिया हिलाने की बात कर रहे हैं।

हमने उन्हें एक बार फिर समझाया, जो मिल गया, उसी को मुकद्दर समझ लीजिए। भविष्य में जब आप बड़े बाबू बन जाएंगे, तब शायद आपको भी रिश्वत का कुछ हिस्सा पहुंच जाया करेगा। अभी तो आप केवल वेट एंड सी ही कर सकते हैं। कुछ दिन बाद कुंठितश्री या शिरोमणि फिर टकरा गए चेहरे पर वही मनहूसियत वाला स्थाई भाव नजर आया। मैंने पूछा, अब क्या हुआ? तो कहने लगे, आजकल मैं कविताएं लिखता हूँ, मगर कोई मुझे भाव ही नहीं देता।

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जिसे देखिए, वही कहता है कि मेरी कविता में भाव का गहरा अभाव है। समझ में नहीं आता कि क्या करूं। सुन रखा था कि कविता लिखने से समाज में प्रतिष्ठा बढ़ती है। अखबारों में नाम भी छप जाता है, इसलिए लिखने लगा। लेकिन लेकिन कोई पूछता ही नहीं। यह ज्ञोर अन्याय है। मैंने उनकी कविता की डायरी देखी मोटी-सी डायरी भर चुकी थी। मैंने चौंकते हुए कहा, कुछ ही दिनों में ये हालत है! क्या वर्षों से कविता कर रहे हैं?

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कुंठित कवि की आत्ममुग्धता और सच्चाई का सामना

तो कुंठितश्री दाँत निपोरते हुए बोले, नहीं, अभी हाल ही में लिखना शुरू किया है। बस, सुबह, दोपहर शाम और रात तक आठ- दस कविताएं ठेल देता हूं, इसलिए एक महीने में यह पूरी डायरी भर गई। अब अपने दफ्तर के बहुत से सादे कागज चुरा के ले जा रहा हूँ। उसमें लिखूंगा। मुझे लगता है, मेरे भीतर किसी कवि की आत्मा घुस गई है, जो मुझसे कविता लिखवाती है। लेकिन लोग कहते हैं कि यह कविता नहीं है। मैं तो कविता समझकर लिख रहा हूं और सुनने वाले कहते हैं कि आपने कुछ भी लिख दिया है। कविता का अपना शिल्प होता है। वह कला है, आदि आदि। लगता है, लोग मुझे पचा नहीं पा रहे हैं।

उनकी बातें सुनकर मैं मन-ही-मन हँस रहा था। लेकिन सामने हँसना ठीक नहीं था। मैंने प्रकट में उनके जख्मों पर मरहम लगाते हुए कहा, हो सकता है। आजकल लोग किसी की तरक्की देख नहीं सकते न। आप तो कागज कारे करते रहिए। सौ साल बाद आपको जरूर लोग पहचानेंगे। मेरी बात सुनकर वे बोले, तो मुझे अब सौ साल तक जिंदा रहना पड़ेगा? मतलब आजसे खान-पान पर विशेष ध्यान देना है।

-गिरीश पंकज
-गिरीश पंकज

किसी कुंठित व्यक्ति को थोड़ा ऊपर चढ़ा दो तो उसकी आत्मा गद्गद हो जाती है। वरना बेचारा कुंठाग्रस्त होकर दुनिया भर को गरियाने लगता है। मैं भी जानता था कि बंदे की कविताएं दो कौड़ी की हैं, लेकिन किसी के मुंह पर क्यों कहना कि तुम दो कौड़ी की कविता लिखते हो। उसको तो बोलना चाहिए कि तुम महा कवि निराला के पिताश्री हो। यानी उनकी परंपरा के आदमी हो। वह गद्गद होगा और आपको चाय-नाश्ता करा कर विदा करेगा।

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