पहाड़ों की बरबादी का शोकगीत लिख रही है पर्यटन की होम स्टे क्रांति!

आखिर प्रकृति और पर्यटन बचें कैसे? इसके उत्तर में विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को अपने मानकों पर सख्ती से काम करना होगा और होम स्टे के नाम पर बन रहे होटलों जैसे घरों के मालिकों को यह स्पष्ट करना होगा कि वह स्थानीय संस्कृति और सुविधाओं में ही रहें न कि शहरीकरण से पहाड़ों को नुकसान पहुंचाएं। हां, आने वाले टूरिस्टों के लिए प्रतिबंध लागू हों, इस पर भी कड़ाई बरतनी होगी। जब तक सरकार और स्थानीय निवासी मिलकर कोई काम नहीं करेंगे, तब तक धराली या केदरानाथ जैसी घटनाओं को रोक पाना मुश्किल होगा।

उत्तराखंड का चाहे विस्तारित हो चुका शहर नैनीताल हो या फिर मैदानी गर्मी जैसा तपता देहरादून। हर जगह होम स्टे की क्रांति आयी हुई है, सिर्फ शहर ही नहीं उत्तराखंड के छोटे-छोटे गांव भी होम स्टे क्रांति की चपेट में हैं। उत्तराखंड ही क्यों, दिल्ली, मुंबई, लखनऊ और जयपुर जैसे शहरों में भी होम स्टे की बीमारी तेजी से फैल चुकी है। हालात ये हैं कि जिस स्टैंडर्ड का होटल दो हजार में मिलता है, उसी स्टैंडर्ड का होम स्टे भी दो हजार का ही मिल रहा है।

उस पर तुर्रा यह कि होटल तो होटल जैसा फील होता है मगर होम स्टे में जाकर होटल से भी अधिक सुविधाएं मिल जाती हैं। यह सब पिछले सात-आठ सालों में आयी होम स्टे क्रांति का नतीजा है। इस क्रांति ने शहरों को भले ही नुकसान नहीं पहुंचाया हो लेकिन पहाड़ों के लिए यह बहुत खतरनाक बन चुकी है। इस होम स्टे क्रांति के दुष्परिणाम क्या हो रहे हैं, यह हाल में गंगोत्री के मार्ग के तीन खूबसूरत गांवों की बरबादी से देखा जा सकता है।

उत्तराखंड में होम स्टे योजना : ग्रामीण क्षेत्रों को पुनर्जीवित करने का एक प्रयास

उत्तराखंड के गांवों से प्रतिभा पलायन के साथ ही गांववासियों के शहर की ओर रुख करने से वीरान हो रहे गांवों को बचाने के लिए सरकार ने वर्ष 2018 में होम स्टे योजना आरंभ की थी। सोच यह थी कि इससे पर्यटक गांवों का रुख करेंगे, इससे जो पहाड़वासी रोजगार की कमी के कारण शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, वह रिवर्स पलायन की ओर आकर्षित होंगे। होम स्टे के लिए एक सोच यह भी थी कि इससे स्थानीय उत्पादों को भी नया जीवन मिलेगा।

जो पर्यटक यहां आएंगे वह यहां की संस्कृति, खान-पान, रहन-सहन, संस्कारों आदि से परिचित होंगे। सबसे बड़ी सोच यह थी कि यहां के पारंपरिक घरों को इसके जरिये खंडहर से बचाया जा सकता है। इसलिए सरकार ने होम स्टे के लिए अनुदान के साथ ही तमाम सुविधाएं भी दीं। इसमें अनुदान तथा सब्सिडी भी शामिल थी। संभावना यह थी कि सरकारी मदद से विरासती घर बच पाएंगे।

होम स्टे योजना के अतिरेक ने पहाड़ की संस्कृति और पर्यावरण को दी चोट

होम स्टे योजना अच्छी थी, मगर इससे पहाड़ों से हो रहा पलायन तो रुका नहीं, हां यह जरूर हुआ कि होम स्टे की इतनी बाढ़ आ गई कि उसमें यहां की संस्कृति, संस्कार, परंपराएं, खान-पान तथा मकान आदि सभी धूमिल होने लगे। आज हालत यह है कि अकेले उत्तराखंड में अनुमानित पांच हजार से अधिक होम स्टे हैं और यह यहां के बड़े शहरों में ही नहीं है बल्कि उन कस्बों-गांवों में भी हैं, जहां पर जाना आज भी मुश्किल है।

जो होम स्टे बन रहे हैं, वह तीन सितारा स्तर की सुविधाएं तक दे रहे हैं। इनमें एसी से लेकर गीजर, हीटर, चार बर्नर के गैस स्टोव, शानदार रूम के साथ ही वाहन खड़े करने के लिए स्पेशल पार्किंग तक की सुविधाएं हैं। ये सब सुविधाएं काटे जा रहे वृक्षों से खाली हुए स्थान पर बन रहे होम स्टे में मिल जाएंगी। इतना ही नहीं जहां पर अनुमति मिल रही है, वहां पर गंगा या उसकी सहायक नदियों के तट को छूती भूमि में भी होम स्टे कतारों में खड़े प्रकृति को मुंह चिढ़ाते नजर आते हैं।

अनियंत्रित होम स्टे विकास : पर्यावरणीय संकट और नियमों की अनदेखी

नाराज प्रकृति, इसका बदला धराली, केदारनाथ, यमुनोत्री, नैनीताल, अल्मोडा, बद्रीनाथ मार्ग आदि में लेती है और सामने आती है बरबादी। होम स्टे भले नाम से बहुत अच्छे लगते हों पर इनकी बाढ़ या क्रांति कुछ भी कह लें, इसने पहाड़ों की समस्याओं को सौ प्रतिशत बढ़ा दिया है। रिवर्स पलायन के उदाहरण दो प्रतिशत भी नहीं हैं जबकि होम स्टे से हो रही समस्याएं कितनी हैं, उन्हें ऐसे समझा जा सकता है कि सरकार ने होम स्टे के लिए कुछ नियम बनाए थे, पर ये नियम कहीं पर भी पालन होते नजर नहीं आते।

जहां पर बिजली है, वहां पर हीटर तथा गीजर जरूर हैं। कचरा निस्तारण के नाम पर उसे सड़क के किनारे फेंका जा रहा है या फिर इसे नदियों में आसानी से बहा दिया जाता है। कई होम स्टे तो ऐसे हैं जिनके पीछे जंगल है और ये अपना कचरा सीधे इसी जंगल में निस्तारित कर देते हैं।

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प्रदूषण की हालत यह है कि जगह-जगह पर्यटकों द्वारा फेंकी गई बोतलें-प्लास्टिक पॉलीथिन जलाई जाती नजर आती हैं। नदियों के किनारों पर बने होम स्टे या होटल जो बोतल मिक्स कचरा यहां-वहां फेंक देते हैं, वह हल्के से पानी के बहाव में नदी में अवरोध पैदा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पानी का मार्ग रुकने पर क्या हो सकता है, यह सभी देख रहे हैं।

स्थानीय खानपान और सांस्कृतिक पहचान पर होम स्टे का प्रभाव

होम स्टे में मिलने वाले भोजन में स्थानीय व्यंजन कम पनीर या मैगी अधिक होते हैं, लोकल फूड के नाम पर एक दो आइटम को छोड़कर यहां पर शीतल पेय, चिप्स, कुरकुरे या फिर उस जैसी शहरी वस्तुएं प्राथमिकता में होती हैं। इसका सीधा सा कारण है कि यह रेडी टू ईट हैं जबकि स्थानीय फूड के लिए पहले जंगल या खेत में जाना होता है और उसमें काफी समय लगता है, जो होम स्टे कम होटल में रुके पर्यटकों को पसंद नहीं होता।

होम स्टे क्या नुकसान कर रहे हैं, यह एक उदाहरण से समझा जा सकता है। ओम पर्वत-आदि कैलाश यात्रा में जब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नहीं गए थे, तब तक वहां पर जाना बहुत मुश्किल था पर अब हालत यह है कि आदि कैलाश तक इतनी बेहतरीन सड़क बन गई है कि उस पर गाडियां फर्राटा भरती हैं। ओम पर्वत की स्थिति तो यह है कि इससे महज पचास मीटर नीचे धुंआ फैलाती डीजल की गाडियां खड़ी होती हैं और तमाम ऐसे रेस्टोरेंट बन गए हैं, जो वहां पर भी गर्मी का अहसास करवा देते हैं। रही-सही कसर रास्ते में खतरनाक स्थानों पर बने होम स्टे पूरी कर देते हैं।

होम स्टे में उम्मीदें टूटीं, पर्यटकों में बढ़ती नाराज़गी और प्रकृति का पलटवार

होम स्टे से प्रकृति को जो नुकसान हो रहा है, वह हाल में धराली या मुखवा में हुए विध्वंस ने दिखा ही दिया है। रही बात पर्यटन की तो यह भी नकारात्मकता की ओर है। पर्यटक इस उम्मीद में आते हैं कि यहां पर होम स्टे में स्थानीयता का आनंद मिल जाएगा और जब उन्हें उम्मीद से कम सुविधाएं या दूसरे लाभ मिलते हैं, तो वह सोशल मीडिया के साथ ही माउथ पब्लिसिटी में भी नकारात्मक प्रतिक्रिया देते हैं।

इसके साथ ही मई-जून की छुट्टियां हों या फिर अन्य त्योहार, जब इन पर भीड़ उमड़ती है तो सुविधाएं छोड़िए खाने के भी लाले पड़ जाते हैं और यदि प्राकृतिक आपदा आ गई, तो उसका वर्णन पर्यटक इस तरह से करता है जैसे वह मौत के मुंह में से निकलकर आया है। यहां यह ध्यान नहीं रहता कि जो भगदड़ या गंदगी हो रही है, उसके लिए आधे पर्यटक भी जिम्मेदार हैं।

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प्रश्र यह है कि आखिर प्रकृति और पर्यटन बचें कैसे? इसके उत्तर में विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को अपने मानकों पर सख्ती से काम करना होगा और होम स्टे के नाम पर बन रहे होटलों जैसे घरों के मालिकों को यह स्पष्ट करना होगा कि वह स्थानीय संस्कृति और सुविधाओं में ही रहें न कि शहरीकरण से पहाड़ों को नुकसान पहुंचाएं। हां, आने वाले टूरिस्टों के लिए प्रतिबंध लागू हों, इस पर भी कड़ाई बरतनी होगी। जब तक सरकार और स्थानीय निवासी मिलकर कोई काम नहीं करेंगे, तब तक धराली या केदरानाथ जैसी घटनाओं को रोक पाना मुश्किल होगा।

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