मैं तुम्हारी बाँसुरी हूँ (कविता)
छिद्र सीने पर हुए हैं तब सरस स्वर बोलती हूं,
घोर पीड़ा सह सदा ही रस मधुर घोलती हूं,
लोग झूमे सुर मधुरतम तान सुनकर सप्त स्वर की,
मैं सदा ही इसलिए कष्ट पीड़ा झेलती हूं।
तुम स्वरों को साधने की साधना पहले करो,
सरस स्वर फूटें यही शुभ कामना पहले करो,
मैं तुम्हारी बंशिका हूँ साध अधरों पर धरो,
तुम हृदय की शुचि सुकोमल भावना पहले करो।

साध लोगे सुर अगर तो ध्वनि सुनेगा जग सुरीली,
सप्त स्वर की फिर बहेंगी सप्त धाराएं रसीली,
सप्त स्वर को साधना भी साधना है यह समझ लो,
साधिका बन साध लो तो धन्य हो जीवन छबीली।
–श्याम सुंदर श्रीवास्तव ‘कोमल’
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