नरक में वापसी : अफगान महिलाओं की त्रासदी
ईरान से हाल ही में निर्वासित अफगान महिलाएँ निश्चय ही गंभीर मानवीय संकट झेल रही हैं। लेकिन यह केवल उनकी समस्या नहीं, वैश्विक समुदाय के लिए चेतावनी भी है। दरअसल, तालिबान शासित अफगानिस्तान में वापस आ रही ये महिलाएँ लैंगिक असमानता, गरीबी और उत्पीड़न के ऐसे नरक में आ गिरी हैं, जिससे मुक्ति का कोई उपाय नज़र नहीं आता! गौरतलब है कि इस बरस ईरान ने अपने यहाँ रह रहे लाखों अफगानों को ज़बरन अफगानिस्तान वापस भेज दिया है।
इनमें हजारों एकल महिलाएँ और महिला-प्रधान परिवार भी शामिल हैं। इनमें से बहुत सी महिलाएँ ईरान में छोटे-मोटे व्यवसायों या मेहनत-मजदूरी के जरिए अपने परिवार का भरण-पोषण कर रही थीं। वापस लौटने पर, तालिबान की लैंगिक भेदभाव भरी नीतियों ने उनके सामने अभूतपूर्व चुनौतियाँ खड़ी कर दी हैं। याद रहे कि स्त्रीविरोधी तालिबान शासन में बिना पुरुष अभिभावक (महरम) के महिलाएँ न तो घर किराए पर ले सकती हैं, न ही ज़्यादातर नौकरियाँ कर सकती हैं।
तालिबानी जुल्म और अफगान महिलाओं की बेबसी
यहाँ तक कि इलाज तक नहीं करा सकतीं! यानी, गरीबी, भुखमरी, शारीरिक-मानसिक शोषण और यौन हिंसा का शिकार होना ही अब इन अभिशप्त महिलाओं और इनके बच्चों की अनिवार्य नियति है। सयाने बता रहे हैं कि ईरान से निर्वासित बहुत सी महिलाओं की संपत्ति छीन ली गई और उनके परिवार के सदस्यों के साथ दुर्व्यवहार हुआ। अनेक विधवाएँ और एकल माताएँ अब गुप्त रूप से घर-आधारित काम करके जीविका चलाने को मजबूर हैं, जो जोखिम भरा और अनिश्चित है।
सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के बोलने या चेहरा दिखाने पर पाबंदी जैसे तालिबानी नियम उनकी आवाज को दबा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र ने इसे नैतिक अपराध करार दिया है। इससे संकट की गंभीरता का पता तो ज़रूर चलता है, लेकिन समाधान क्या है? विचारणीय यह भी है कि निर्वासित महिलाओं की वापसी ने पहले से ही कमजोर अफगानिस्तान की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था पर भारी दबाव डाला है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, अफगानिस्तान की 85 प्रतिशत आबादी एक डॉलर प्रतिदिन से कम पर जीवित है।
महिलाओं की शिक्षा और रोजगार पर पाबंदी ने उनकी आर्थिक स्वतंत्रता को नष्ट कर दिया है। इसका सबसे अधिक असर महिला-प्रधान परिवारों पर पड़ा है। मानवाधिकार संगठनों ने चेतावनी दी है कि सहायता प्रणालियाँ पहले ही चरमरा चुकी हैं। आवास, भोजन और सुरक्षा की कमी इन महिलाओं को हिंसा और शोषण के लिए आसान निवाला बनाती है। तालिबानी नीतियाँ न केवल महिलाओं के अधिकारों का हनन करती हैं, बल्कि सामाजिक ताने-बाने को भी कमजोर करती हैं। लेकिन तालिबान की नज़र में तो आधी आबादी मानो मनुष्य ही नहीं!
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संयुक्त राष्ट्र की निष्क्रियता और क्षेत्रीय तनाव
बेशक, तालिबान की लैंगिक भेदभाव नीतियों को संयुक्त राष्ट्र और मानवाधिकार संगठनों ने अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन माना है। लेकिन, यह भी सच है कि दोहा जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर महिलाओं के अधिकारों को प्राथमिकता न दिए जाने से तालिबान के हौसले और भी बढ़े हुए हैं। इसे वैश्विक समुदाय की विफलता ही कहा जा सकता है न! भला विश्व बिरादरी इस तथ्य से आँखें कैसे फेरे रह सकती है कि ईरान और पाकिस्तान जैसे देशों की निर्वासन नीतियाँ क्षेत्रीय तनाव को भी बढ़ा रही हैं।
उधर ईरान ने इजराइल के साथ युद्ध के बाद अपनी नीतियों को और सख्त कर लिया। उधर पाकिस्तान से भी 2023 से बड़े पैमाने पर अफगानों का निर्वासन जारी है। यह कैसे भूला जा सकता है कि इस शरणार्थी संकट से सीमावर्ती इलाकों में अस्थिरता और उग्रवाद को बढ़ावा मिल सकता है! अंतत सवाल यह है कि, ईरान और पाकिस्तान जैसे देशों को जबरन निर्वासन रोकने के लिए कैसे प्रेरित किया जाए? कैसे शरणार्थियों के लिए सुरक्षित आश्रय सुनिश्चित किया जाए? क्या संयुक्त राष्ट्र और अन्य संगठनों को इन असहाय अफगान महिलाओं के लिए आगे नहीं आना चाहिए? … और लाख टके का सवाल यह कि, क्या तालिबान या ईरान या पाकिस्तान के लिए संयुक्त राष्ट्र सचमुच कोई माने रखता है?
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