परिवार की छाया

 family shadow
कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद के चुनाव की गहमागहमी चालू है। पद यात्रा के बीच राहुल गांधी केरल से दिल्ली आ रहे हैं। सोनिया गांधी से मिलने; शायद आगे की रणनीति तय करने भी। संभावित प्रत्याशी-द्वय भी आदेश और अनुमति के अनुरूप आगे बढ़ने को तत्पर हैं। अशोक गहलोत इस चुनाव में हाईकमान के `आदेश' पर उतरने वाले हैं, तो शशि तरूर ने हाईकमान से विधिवत `अनुमति' ली है। पेंच इस बात पर फँसा है कि क्या इसके लिए अशोक गहलोत को राजस्थान का मुख्यमंत्री पद छोड़ना होगा। खैर, अभी तो तेल देखिए, तेल की धार देखिए!

इन हालात में कांग्रेस के भावी अध्यक्ष के बारे में असमंजस कम होने के बजाय बढ़ता जा रहा है। बागियों ने चुनाव की रट यह सोच कर लगा रखी थी कि इससे पार्टी को गांधी परिवार की छाया से मुत्ति मिल जाएगी। लेकिन फिलहाल तो ऐसा होता नजर नहीं आ रहा। छायाएँ इतनी आसानी से पीछा छोड़ दें, तो उन्हें छाया कौन कहे!  
हालाँकि राहुल गांधी अनेक अवसरों पर कह चुके हैं कि वे कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के तनिक भी इच्छुक नहीं हैं। लेकिन पार्टी में हर ओर से जिस तरह उन्हें ही अध्यक्ष बनाने की माँग उठ रही है, उससे यह साफ है कि अगर वे अपने फैसले से नहीं डिगे, तो अध्यक्ष पद निश्चित रूप से उनके ही किसी वफादार के हिस्से में जाएगा। वैसे वे अपने फैसले से शायद ही डिगें, क्योंकि वे `भारत जोड़ो' यात्रा इस कुर्सी के लिए नहीं, बल्कि उस कुर्सी के लिए कर रहे हैं, जिसे प्रधानमंत्री की कुर्सी कहा जाता है। यानी कांग्रेस अध्यक्ष के लिए चुनाव मैदान में वे प्रत्यक्ष रूप से भले न उतरें, लेकिन जीतेगा तो वही, जिसके साथ उनका आशीर्वाद होगा। इसी आशीर्वाद को सुनिश्चित करने के लिए तो संभावित प्रत्याशी उनकी यात्रा में दौड़ कर आ रहे हैं। आशीर्वाद यानी छाया, या कहें छत्रछाया कि `तू जहाँ-जहाँ चलेगा, मेरा साया साथ होगा'!   
खैर, कुछ भी हो, कम से कम यह संतोष तो कांग्रेस कार्यकर्ताओं को होना ही चाहिए कि अंततः चुनाव हो रहे हैं। दंगल तो है न; भले ही नूरा कुश्ती हो! हाँ, गांधी परिवार की छाया जिस प्रत्याशी को मिलने जा रही है, उसे चुनौती देने वाले प्रत्याशी को अपनी नियति मालूम है। फिर भी अगर ऐसे प्रत्याशी अंत तक मैदान में बने रहे और राहुल गांधी के लिए राज्य-राज्य से उमड़ रहा कार्यकर्ताओं का अनन्य प्रेम अगर उनके वरदहस्त परप्त छाया प्रत्याशी के समर्थन में बदल गया (जो कि लगभग तय है), तो चुनौती देने वाले का चारों खाने चित होना भी तय है। यही नहीं, हो सकता है कि इस ऐतिहासिक समर के बाद उन्हें राजनैतिक वीरगति मिल जाए और वे इतिहास होकर रह जाएँ। कहना न होगा कि अशोक गहलोत और शशि थरूर, दोनों ही ने इन तमाम संभावनाओं पर गौर कर लिया होगा।  

उम्मीद की जानी चाहिए कि बहुत-बहुत लंबे अरसे से लंबित अध्यक्ष पद का यह चुनाव कांग्रेस को पुनर्जीवित कर सकेगा और कांग्रेसियों को अवश्य नई स्फूार्ति दे सकेगा। लेकिन यह सोचना अभी शायद दूर की कौड़ी ही है कि इससे पार्टी का कायाकल्प हो जाएगा। उसके लिए तो छाया से मुत्ति चाहिए न! जबकि यह सारा नाटक छाया की स्थापना का सोचा-समझा अभियान भर है। क्या इस तरह कांग्रेस को परिवारवाद के कथित लांछन से मुत्ति मिल जाएगी? या चेहरा बदल जाएगा, पर कुनबा ज्यों का त्यों रहेगा? यह तो भविष्य ही बताएगा।  
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