उन्हें हिजाब नहीं चाहिए!

 They don't need a hijab!
ईरान में कथित धार्मिक आचार के नाम पर महिलाओं के ऊपर थोपी गई पाबंदियों के खिलाफ अरसे से दबी हुई चिंगारी जिस तरह भड़क कर आंदोलन की लपटों में तब्दील होती दिखाई दे रही है, वह किसी क्रांति से कम नहीं। दुनिया भर में जहाँ कहीं भी सरकारें `नैतिक पुलिसगीरी' कर रही हैं, उन्हें सँभल जाना चाहिए। कोई भी शासन धर्म, मजहब या संप्रदाय के नाम पर अनंत काल के लिए नागरिकों की नैसर्गिक आज़ादी का हरण करने का आनंद नहीं ले सकता। गौरतलब है कि ईरान में हिजाब का विरोध करने पर गिरफ्तार की गई 22 वर्षीय युवती महसा अमिनी को पुलिस ने इस हद तक प्रताड़ित किया कि उनकी मृत्यु हो गई। इस पुलिसिया हत्याकांड से महिलाओं का दबा हुआ गुस्सा फूट पड़ा और इस क्रूरता का विरोध करने के लिए वे सड़कों पर उतर आईं। अनेक महिलाओं ने बुर्के और हिजाब उतार दिए, तो अनेक ने कैंची उठा कर खुद  अपने बाल काट डाले। यही नहीं, ऐसा करने के फोटो और वीडियो सोशल मीडिया के जरिये सारी दुनिया में फैलाने में भी संकोच नहीं किया। बात की बात में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन शुरू हो गए। गुस्सा फूटा, तो हिंसा भी शुरू हो गई। इससे सरकार को उग्रता से दमन करने का बहाना मिल गया और लाशें गिरने लगीं। कुर्द इलाके के शहर दीवानदारेह में लोगों ने कई चौराहों पर टायर जलाए और नारेबाजी की। याद रहे कि अमिनी कुर्दिस्तान से ताल्लुक रखती थीं। यहाँ हिंसक प्रदर्शनों में 5 लोगों की मौत हो गई। इतना ही नहीं, तेहरान और मशहद शहर में कई विश्वविद्यालयों के छात्र भी सड़कों पर उतर आए। यहाँ भी छात्राओं ने स्थानीय कानून की अवहेलना करते हुए अपने हिजाब उतार डाले।

सयाने बता रहे हैं कि ईरान एक `इस्लामी गणराज्य' है। इसके तहत लोगों को सरकार की बताई `नैतिकता' का निर्वाह करना पड़ता है। उसका उल्लंघन दंडनीय अपराध माना जाता है। इसके लिए वहाँ बाकायदा `नैतिकता पुलिस' है। इसका एक मुख्य काम `इस्लामी गणराज्य' में `ड्रेस कोड' लागू करना भी है। यहाँ महिलाओं को सार्वजनिक रूप से हिजाब पहनना अनिवार्य है। साथ ही, तंग या त्वचा दिखाने वाले कपड़े पहनने पर भी रोक है। महिलाओं का गला और कंधे ढके होने चाहिए। ऊँची एड़ी के जूते-चप्पल भी गैर-इस्लामी हैं। कहा जा सकता है कि 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद से लागू इन नियमों के कारण ईरान में औरतों का जीना हराम हो चुका है। इसीलिए इस घटना से पैदा हुई नाराज़गी को सार्वजनिक विरोध और आंदोलन में बदलते देर नहीं लगी।

प्रसंगवश यहाँ यह याद किया जा सकता है कि इस्लामी क्रांति से पहले शाह मोहम्मद रजा पहलवी के ज़माने में ईरान अति आधुनिक देश हुआ करता था, जिसने बहुत-सी मजहबी रूढ़ियों से खुद को आज़ाद कर लिया था। लेकिन मुल्ला-मौलवी एकजुट होकर रजा पहलवी को पश्चिम-परस्त कह कर अपदस्थ करने में कामयाब हो गए। कथित इस्लामी क्रांति के बाद आयतुल्ला खुमैनी ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता बन बैठे। इसके बाद शुरू हुआ कट्टर इस्लामी कानून का क्रियान्वयन; और ईरान  की सरकार खास तौर से महिलाओं के मानवाधिकारों पर डाका डालने के लिए कुख्यात होती गई। इस्लामी ड्रेस कोड का पालन न करने पर अब तक हजारों महिलाओं के खिलाफ मामले चलाए जा चुके हैं। कहना गलत न होगा कि शासकों की संवेदनहीनता ने ईरानी महिलाओं के लिए इस्लामी क्रांति को एक यातनामय दुःस्वप्न बना कर रख छोड़ा है। यही वजह है कि अब वे खुल कर इस धर्म-आधारित सत्ता के खिलाफ विद्रोह कर रही हैं। भले ही ईरान सरकार इसे अपनी आंतरिक समस्या बता रही हो, लेकिन यह वास्तव में स्त्री जाति की आज़ादी से जुड़ी वैश्विक समस्या है। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र ने भी ईरान की महिलाओं के पक्ष में आवाज़ उठाई है। अंततः यह भी कि ईरान के उदाहरण से उन समाजों को चौकन्ना हो जाना चाहिए जो जाने-अनजाने कट्टर धार्मिकता की सर्प-कुंडली में फँसते जा रहे हैं।  
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