मानवता के दिशा दीप गुरूदेव श्री तुलसी

Aacharya Tulsi and his humanity
धर्म क्रांति एवं साम्प्रदायिक सद्भाव अाचार्यश्री के महत्वपूर्ण कार्यों में शामिल रहे। वे कहते थे, मुझे ऐसा धार्मिक नहीं चाहिए, जो धर्म-स्थान में बैठ कर भक्त प्रह्लाद और मीरा की भक्ति प्रदर्शित करे और घर-दुकान एवं कार्यालय में बैठ कर राक्षसी वृत्तियां प्रकट करे। उनकी दृष्टि में धर्म करने का अधिकार जितना एक महाजन को है, उतना ही एक हरिजन को भी है। उनके इन क्रांतिकारी विचारों ने अाज बौद्धिक मानस में भी धार्मिकता का संचार किया है और नास्तिक चेतना में भी अास्तिकता के धर्म की लौ को जलाये रखा।

अाचार्यश्री तुलसी को क्रांतिकारी अाचार्य माना जाता है। वे तेरापंथ धर्म संघ के नौवें अाचार्य थे। अाचार्यश्री तुलसी का जन्म वि. सं. 1971 कार्तिक शुक्ल द्वितीया को लाडनूं (राजस्थान) में हुअा। उनके पिता श्री झूमरमलजी खटेड़ तथा माता वंदनाजी थीं। नौ भाई-बहनों में श्री तुलसी अाठवें स्थान पर थे। बचपन से ही होनहार व मेधावी व्यक्तित्व के धनी थे। उनके पारिवरिक जन धर्मानुरागी थे। बड़े भ्राता चम्पालालजी प्रारंभ में ही मुनि बन गये थे। गुरू पूज्यश्री कालूगणी के दिव्य-प्रवचन तथा व्यक्तित्व ने बालक तुलसी के पूर्व अर्जित संस्कारों को जागृत किया। बालक ने अपने मुनि बनने की भावना माँ के समक्ष प्रस्तुत की तो बड़े भाई मोहनलालजी ने उनका सच्चा वैराग्य जानने के लिए अनेक प्रकार के भौतिक प्रलोभन दिये और समय-समय पर परीक्षा लेते रहे, जिसमें बालक तुलसी उत्तीर्ण हुए।

एक बार श्री मोहनलालजी ने बालक तुलसी को सौ रूपये देते हुए कहा, `तुलसी! तुम दीक्षा लेने जा रहे हो, साधना में अनेक प्रकार की कठिनाइयां अाएंगी। कहीं भोजन नहीं मिलेगा तो कहीं प्यासा ही रहना पड़ेगा। तुम अभी बालक हो। इसलिए कभी ऐसा अवसर अा जाये, तो इन रूपयों का उपयोग कर लेना। यह तुम्हारे पढ़ने के कागजों के बीच पड़ा रहेगा।' बड़े भाई की बात सुन कर तुलसी ने मुस्कुराते हुए कहा, `भाईजी, यह तो परिग्रह है। साधु को परिग्रह रखना कल्पता नहीं।' बस श्री मोहनलालजी को पूर्ण विश्वास हो गया कि बालक तुलसी का वैराग्य सच्चा है।

वि. सं. 1982 पौष कृष्ण पंचमी को लाडनूं में ग्यारह वर्ष की अवस्था में पूज्य कालूगणी के कर-कमलों से उनका दीक्षा-संस्कार सम्पन्न हुअा। बालक तुलसी के साथ उनकी बड़ी बहन लाडीजी भी दीक्षित हुईं, जो अागे चल कर तेरापंथ संघ की सातवीं साध्वीं प्रमुखा बनीं। ग्यारह वर्ष तक गुरू के पावन सान्निध्य में रह कर मुनि तुलसी ने शिक्षा एवं साधना की दृष्टि से अपने व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास किया। हिन्दी, संस्कृत एवं प्राकृत भाषाअों तथा व्याकरण कोष, साहित्य दर्शन एवं जैनागमों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। लगभग बीस हजार श्लोक परिमाण रचनाअों को कण्ठस्थ करना उनकी प्रखर प्रतिभा का परिचय है।

संयम-जीवन की निर्मल साधना, विवेक, सौष्ठव, अागमों का तलस्पर्शी अध्ययन, सहनशीलता, गंभीरता, धीरता, अनुशासन, निष्ठा अादि विविध विशेषताओं से प्रभावित होकर अष्टमाचार्य कालूगणी ने वि. सं. 1993 भाद्रपद शुक्ल की तृतीया को गंगापुर में उन्हें अपने उत्तराधिकारी के रूप में मनोनीत किया। उन्हें युवचार्य के पद पर बने रहने का मौका मात्र चार दिन ही मिला। भाद्रपद शुक्ल षष्ठी को पूज्य कालूगणी दिवंगत हो गये। बाईस वर्षीय मुनि तुलसी के कंधों पर विशाल धर्म संघ का दायित्व अा गया। वे भाद्र शुक्ल नवमी को अाचार्य पद पर अासीन हुए। उस समय तेरापंथ संघ में 139 साधु व 333 साध्वियाँ थीं।

नैतिक क्रांति, मानसिक शांति और व्यक्तित्व निर्माण की पृष्ठभूमि पर अाचार्यश्री ने तीन अभियान चलाए- अणुव्रत अान्दोलन, प्रेक्षा ध्यान और जीवन विज्ञान। ये तीनों ही अभियान अनुपम हैं, अपूर्व हैं और अपेक्षित हैं। अणुव्रत जाति, लिंग, रंग, संप्रदाय अादि के भेदों से ऊपर उठ कर मानव मात्र को चारित्रिक मूल्यों के संकट से उबारने का उपक्रम है। प्रेक्षा-ध्यान मानसिक एवं शारीरिक तनावें से ग्रसित मानवीय चेतना को शान्ति के पथ पर अग्रसर करता है।

धर्म क्रांति एवं साम्प्रदायिक  सद्भाव अाचार्यश्री के महत्वपूर्ण कार्यों में शामिल रहे। वे कहते थे, मुझे ऐसा धार्मिक नहीं चाहिए, जो धर्म-स्थान में बैठ कर भक्त प्रह्लाद और मीरा की भक्ति प्रदर्शित करे और घर-दुकान एवं कार्यालय में बैठ कर राक्षसी वृत्तियां प्रकट करे। उनकी दृष्टि में धर्म करने का अधिकार जितना एक महाजन को है, उतना ही एक हरिजन को भी है। उनके इन क्रांतिकारी विचारों ने अाज बौद्धिक मानस में भी धार्मिकता का संचार किया है और नास्तिक चेतना में भी अास्तिकता के धर्म की लौ को जलाये रखा।

- निर्मला बैद
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