व्यवहार निपुणता के बिना ज्ञान अधूरा

गुरू कभी भी व्यवहार के बारे में लंबे-चौड़े प्रवचन या भाषण नहीं देता। वह अपने अाचरण द्वारा अपने व्यवहार का प्रदर्शन करता है ताकि उसके सान्निध्य में अाने वाले उसे समझें और सबके भले के लिए उसे जीवन में उतारें। गुरू के मन में किसी के प्रति भेदभाव की भावना नहीं होती। भेदभाव मिटते ही हमारे भीतर की शक्तियाँ जागृत होती हैं और अाप एक साथ कई सीढि़याँ ऊपर चढ़ जाते हैं।

व्यवहार और ज्ञान, ये दो हार हैं, जो हर गुरू अपने शिष्य के गले में अवश्य डालता है ताकि शिष्य की अाध्यात्मिक प्रगति उचित दिशा में और तीव्र गति से प्रवहित हो सके। अापके बोलने के लहज़े और शब्दों से अापकी व्यवहार निपुणता का पता चलता है। पुरूषों की तुलना में स्त्रियाँ अधिक व्यवहार निपुण होती हैं और भावना-प्रधान होने के कारण ज्ञान को भी सहजता से ग्रहण करती हैं। पुरूष के पास भावना की शक्ति न होने के कारण वह सदा बुद्धि लगाने का प्रयास करता है और ज्ञान ग्रहण करने की बजाय तर्क-वितर्क में उलझा रहता है। भावना-प्रधान होने के कारण स्त्री में प्रेम तथा भक्ति-भाव कूट-कूट कर भरा होता है और भक्ति की इस भावना के कारण वह ज्ञान को भी सहज स्वीकार कर लेती हैं। भक्ति के बिना ज्ञान नीरस होता है और मन को नीरसता अच्छी नहीं लगती। नीरस ज्ञान को मन जल्दी से स्वीकार नहीं कर पाता।

उद्धव बहुत ज्ञानी थे, पर केवल ज्ञान के कारण अहंकार बहुत जल्दी अा घेरता है। भगवन कृष्ण उन्हें प्रेम-रस और भक्ति का ज्ञान देना चाहते थे, लेकिन बुद्धि प्रधान होने के कारण उन्हें मालूम था कि उद्धव इसे स्वीकार नहीं कर पाएंगे। इसलिए उन्होंने उद्धव से यह नहीं कहा कि तुम राधा जी के पास जाकर उनसे भक्ति और प्रेम की शिक्षा लेकर अाओ। कृष्ण ने कहा कि उद्धव, जाओ और राधा जी को थोड़ा ज्ञान देकर अाओ। वहाँ जाकर ज्ञान देना तो दूर की बात, वे राधा की भक्ति और प्रेम से इतने अभिभूत हो गए कि उन्हीं की शरण में चले गए।

व्यवहार को उद्धव बनाने का एक तरीका यह होता है कि अाप जब कभी किसी से मिलें, उसे पूरी  अहमियत दें। उसके साथ उसी विषय पर बात करें, जो  उसको पसंद हो। उसके विचारों और उसकी राय को जान कर उसे प्रोत्साहित करें। सबके साथ मीठा बोल कर उनके मन को अच्छा महसूस करवएँ। दूसरों के दुःख में दुःखी और उनके सुख में सुखी होना भी व्यवहार निपुणता की निशानी है।

दूसरों के दुःख में दुःखी होना अापके धैर्य की परीक्षा है। जो ऐसा कर पाता है, वह शरीर भाव से ऊपर उठ जाता है और फिर उसका रिश्ता अात्मा से अात्मा का हो जाता है। सद्व्यवहार का एक और लक्षण है- सबका अाभार प्रकट करना। जीवन में जो अापके संपर्क में अाया, जिसने अापकी मदद की या मदद न करके अापको जीवन में कोई सीख दी, उन सबका अाभार प्रकट करना चाहिए। हम भले ही कितने बुद्धिमान हो जाएँ या अाध्यात्मिक राह में अागे बढ़ जाएँ, हमें अपने कर्त्तव्यों से मुँह नहीं मोड़ना चाहिए। अपने सांसारिक कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हुए ज्ञान की प्राप्ति भी करनी चाहिए और व्यवहार में निपुण भी बनना चाहिए।

यदि हमारा व्यवहार अच्छा नहीं है तो कोरे ज्ञान से कुछ नहीं होगा। यह भी एक प्रकार की साधना है और बुद्धि इसे नहीं समझ सकती, क्योंकि यह बुद्धि से परे जाने की साधना है। गुरू पर पूरा विश्वस होना चाहिए। हमारे जीवन का लक्ष्य उस परम पिता परमात्मा से एकाकार होना है। मन अापको नाना प्रकार से भटकाने का प्रयास करेगा। मन के बहकावे में न अाएँ और व्यवहार तथा ज्ञान रूपी हारों को सदा धारण करें। अापको अपने लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होगी।

 - सद्गुरू रमेश जी
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