चुनाव सुधार और संघीय ढाँचे के बीच तनातनी


चुनाव प्रक्रिया में सुधार की बात यों तो शायद पहले अाम चुनाव से ही शुरू हो गई होगी। लेकिन जिस शिद्दत के साथ पिछले कुछ समय से `एक देश, एक चुनाव' के विचार को बार-बार दोहराया जा रहा है, वह विचारणीय है। दो अलग-अलग तरह की बातें सामने अा रही हैं। एक यह, कि रोज़-रोज़ का महँगा चुनावी झमेला विकास की राह का काँटा है;  इसलिए सारी विधानसभाअों के चुनाव भी लोकसभा के साथ ही एक बार में निपटा दिए जाने चाहिए। दूसरा यह, कि यह विचार संविधान की भावना और देश के संघीय ढाँचे के पूरी तरह खिलाफ है। कुल मिलाकर, `इधर जाऊँ या उधर जाऊँ, मैं किधर जाऊँ' - वाले हालात हैं।
लोकसभा, विधानसभा और यहाँ तक कि स्थानीय निकायों तक के चुनाव एक साथ कराने के पक्ष में सबसे बड़ी दलील यह अाई है कि चुनावों पर खर्च लगातार बढ़ता जा रहा है। अगर सारे चुनाव एक साथ होंगे और 5 साल तक के लिए होंगे, तो बहुत-सा खर्च बच जाएगा - समय और ऊर्जा भी। इस बचत को देश की विकास योजनाअों में लगाना बेहतर और फलदायी होगा।
सवाल यह है कि चुनाव प्रणाली को कम खर्चीली बनाने का क्या यही एक रास्ता है? हमें संसदीय लोकतंत्र चाहिए या ऐसी `कोई भी' व्यवस्था जो कम खर्चीली हो? केवल कम खर्च वाली बात सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती, तो हम राष्ट्रपति प्रणाली से लेकर धार्मिक शासन, राजतंत्र, सैनिक शासन, एकदलीय व्यवस्था और तानाशाही तक किसी को भी अपना सकते थे।  लेकिन हमने बहुदलीय संसदीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था चुनी है।  इसका अाधार ही है - स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव।
पूछा जा सकता है, क्या एक साथ होने से चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष नहीं रहेंगे? रहेंगे; पर जनता की इच्छा का अाईना नहीं होंगे। राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि भारत जैसे बड़े देश में स्थानीय निकायों, विधानसभाअों और लोकसभा की सीटों के लिए चुनावी मुद्दे प्रायः अलग-अलग होते हैं तथा मतदान का पैटर्न भी अलग-अलग होता है। जिस प्रकार बड़ा बाज़ार छोटे बाज़ारों को खा जाता है, उसी प्रकार बड़े अर्थात लोकसभा चुनाव के मुद्दे, छोटे अर्थात स्थानीय चुनाव के मुद्दों को खा लेंगे। अगर ऐसा हुअा, तो राजनीति और प्रशासन के लिए `ग्रास रूट लेवल' के मुद्दे महत्वहीन हो जाएँगे। तब चुने हुए प्रतिनिधि उनके प्रति किसी प्रकार की प्रतिबद्धता महसूस नहीं करेंगे। (वैसे अब भी कहाँ करते हैं?) क्या कुछ करोड़ राशि बचाने के लिए, हमें यह खतरा मोल लेना चाहिए?
तनिक-सा ध्यान देने पर ही, यह बात समझ में अा जाती है कि हमारे संविधान में राज्य `ईकाई' है और वेंद्र इन ईकाइयों का संघ। धर्म, भाषा, परंपरा, विश्वास, रीति-रिवाज, प्रावृतिक परिवेश और लोक की भिन्नता के कारण ये राज्य एकसूत्र में पिरोए हुए होकर भी अलग-अलग रंग वाले फूलों की तरह हैं। इस विविधता के कारण ही हर क्षेत्र की अलग पहचान है। जहाँ कहीं इस विविधता की उपेक्षा करके किसी बड़े क्षेत्र को एक ईकाई कर दिया गया, वहाँ बाद में विघटन हुअा और नए प्रांतों के रूप में नयी ईकाइयाँ उभरीं (जैसे, तेलंगाना)। स्थानीय चुनाव मुख्यतः इन क्षेत्रीयताअों और इनसे जुड़ी अाकांक्षाअों की अभिव्यक्ति होते हैं। यदि ये अाकांक्षाएँ लोकसभा चुनाव के नगाड़े की अावाज़ों तले दबेंगी, तो दूरगामी परिणाम लोकतंत्र की सेहत के लिए अच्छा नहीं होगा।
यह भी विचारणीय है कि कहीं खर्च घटाने के चक्कर में हम निरंकुश शासन की राह तो अासान नहीं कर देंगे? अगर 5 साल में एक ही बार चुनाव होना है, तो उपचुनाव, मध्यावधि चुनाव, या विधानसभा/लोकसभा के बीच में भंग होने पर चुनाव संभव नहीं होंगे न?
इसलिए हमारा कहना है कि, यदि नीति अायोग और भारत सरकार को यह लगता है कि 2024 से लोकसभा और विधानसभाअों के चुनाव एक साथ कराना राष्ट्रीय हित में होगा, तो इस पर गंभीर विमर्श की अावश्यकता है। नीति अायोग ने कहा भी है कि विशेषज्ञों का एक समूह गठित हो, जो इस विषय पर सिफ़ारिशें दे। वैसे भी संविधान-संशोधन की जटिल प्रक्रिया से गुजरे बिना यह बदलाव संभव नहीं।
 
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