पुराण कथा
प्राचीनकाल में चन्द्रचूड़ नामक एक राजा था। धार्मिक कार्यों और दान-पुण्य में उसके समान अन्य कोई न था। राज्य में उसकी जय-जयकार होती थी। उसकी पत्नी भी उसी के समान सती साध्वी और दानी प्रकृति की थी।
एक बार राजा चन्द्रचूड़ ने अपनी पत्नी के साथ भद्रशीला के तट पर भगवान सत्यनारायण का व्रत कर भव्य धार्मिक उत्सव का अायोजन किया। वहां उपस्थित व्यक्ति भगवान विष्णु का कीर्तन श्रवण कर रहे थे। तभी साधु वणिक नामक एक धनी वैश्य अाया। उसने अाश्चर्यचकित हो राजा-रानी से वहाँ भगवान विष्णु की पूजा करने के विषय में पूछा।
चन्द्रचूड़ बोला, `मान्यवर! हम यहां भगवान सत्यनारायण की पूजा-अर्चना कर रहे हैं। उनके स्मरण मात्र से ही समस्त दुःखों का अंत हो जाता है। उनकी कृपा से भक्तों के समस्त पापों का नश हो जाता है।'
चन्द्रचूड़ की बात सुन कर साधु वणिक विनती भरे स्वर में बोला, `राजन! कृपया मुझे भी इस व्रत की विधि बताएं। यदि भगवान सत्यनारायण पुत्रहीनों को पुत्र प्रदान करते हैं तो वे मुझ संतानहीन को भी अवश्य संतान प्रदान करेंगे।' चन्द्रचूड़ ने साधु वणिक को भगवान सत्यनारायण के व्रत का सम्पूर्ण विधान समझा दिया।
घर लौट कर साधु वणिक ने अपनी पत्नी लीलावती को इस व्रत के बारे में बताया। उसके बाद उसने प्रण किया कि जिस दिन उसके घर संतान जन्म लेगी, उसी दिन वह सत्यनारायण का व्रत करेगा। कुछ ही दिनों में लीलावती गर्भवती हो गई और उचित समय अाने पर उसने एक कन्या को जन्म दिया। उस कन्या का नाम कलावती रखा गया।
कन्या के जन्म के बाद, एक दिन लीलावती ने अपने पति साधु वणिक को उसके संकल्प के विषय में बताया और सत्यनारायण व्रत करने को कहा। उसकी बात अनसुनी करते हुए वह बोला, `प्रिया! मुझे अपना संकल्प अच्छी तरह याद है और मैं उसे अवश्य पूर्ण करूंगा। किंतु अभी मुझ पर काम का अधिक बोझ है। व्यापार दिनोंदिन बढ़ रहा है और काम के लिए मुझे बाहर जाना पड़ेगा। अतः अब मैं कलावती के विवाह के बाद ही भगवान सत्यनारायण का व्रत करूंगा।'
धीरे-धीरे अनेक वर्ष बीत गए। कलावती युवा हो गई। साधु वणिक ने शंखपति नाम युवक से उसका विवाह कर दिया और उसे भी अपने व्यापार में शामिल कर लिया।
लीलावती ने पुनः पति को उसके प्रण की याद दिलवाई और उसने पुनः उसकी बात टाल दी। साधु वणिक द्वारा व्रत का तिरस्कार होते देख भगवान सत्यनारायण क्रोधित हो गए। उन्होंने उसे घोर कष्ट भोगन का शाप दे दिया। कुछ दिनों के बाद साधु वणिक और शंखपति विभिन्न नगरों में व्यापार करते हुए, समुद्र के निकट स्थित रत्नपुर नामक नगर में पहुंचे। वहां का राजा चन्द्रकेतु था। ससुर-दामाद वहीं व्यापार करने लगे।
एक बार एक चोर राजकोष से धन चुरा कर भागते-भागते उस स्थान पर जा पहुंचा, जहां साधु वणिक तथा शंखपति ठहरे हुए थे। सिपाही उसके पीछे लगे हुए थे। इसलिए उसने चोरी के धन को चुपके से साधु वणिक के पास रख दिया और स्वयं वहां से भाग गया।
सिपाहियों ने जब साधु वणिक के पास राज-धन पड़ा देखा तो उसे ही चोर समझ कर राजा के समक्ष उपस्थित कर दिया। राजा चन्द्रकेतु ने उन दोनों को कठोर कारावास का दण्ड देते हुए, उनका सारा धन राजकोष में जमा करवाने की अाज्ञा दे दी।
इधर साधु वाणिक के घर में भी चोरी हो गई। चोर उसका सारा धन चुरा कर ले गए। घर में अन्न, धन और वðा का अभाव हो गया। दोनों मां-बेटी भिक्षा मांग कर जीवन व्यतीत करने लगीं।
एक दिन भूख-प्यास से व्याकुल कलावती एक ब्राह्मण के घर भिक्षा मांगने गई। वहां भगवान सत्यनारायण की व्रत-कथा चल रही थी। कलावती ने वहां बैठ कर कथा सुनी। पूजा समाप्ति के उपरांत ब्राह्मण ने उसे प्रसाद दिया।
घर अाकर उसने अपनी माता को भगवान सत्यनारायण के व्रत की बात बताई। तब लीलावती दुःखी स्वर में बोली, `पुत्री! तुम्हारे जन्म से पूर्व तुम्हारे पिता ने भी भगवान सत्यनारायण का व्रत करने का संकल्प किया था, लेकिन उसे पूरा नहीं किया। शायद इसी का परिणाम अाज हमें भोगना पड़ रहा है।'
माता की बात सुन कर कलावती बोली, `मां! यदि पिताजी व्रत करना भूल गए हैं तो हम उनका संकल्प पूरा करेंगे। मुझे विश्वास है कि भगवान सत्यनारायण हमारी पूजा स्वीकार कर हम पर कृपा करेंगे।'
कलावती की बात मान कर लीलावती ने अपने सगे-संबंधियों के साथ भगवान सत्यनारायण की पूजा-अाराधना की।
भगवान् सत्यनारायण प्रसन्न हो गए। उन्होंने उसी रात राजा चन्द्रकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर साधु वणिक और शंखपति को छोड़ने का देश दिया।
प्रातःकाल चन्द्रकेतु ने साधु वणिक और शंखपति से अपने अपराध की क्षमा-याचना कर उनका सारा धन लौटा दिया और उन्हें सम्मानपूर्वक अपने नगर से विदा किया। दोनों प्रसन्नतापूर्वक अपने नगर की ओर प्रस्थान करने के लिए नाव में अपना धन रखने लगे।
इतने कष्ट भोगने के बाद भी साधु वणिक को अपना संकल्प याद नहीं अाया। तब भगवान सत्यनारायण तपस्वी का वेश बना कर वहां प्रकट हुए और बोले, `हे दयालु सज्जन! अापकी नाव में क्या रखा है?'
भगवान सत्यनारायण ब्राह्मण रूप में साधु वणिक की सत्यनिष्ठा की परीक्षा ले रहे थे। साधु वणि्
प्राचीनकाल में चन्द्रचूड़ नामक एक राजा था। धार्मिक कार्यों और दान-पुण्य में उसके समान अन्य कोई न था। राज्य में उसकी जय-जयकार होती थी। उसकी पत्नी भी उसी के समान सती साध्वी और दानी प्रकृति की थी।
एक बार राजा चन्द्रचूड़ ने अपनी पत्नी के साथ भद्रशीला के तट पर भगवान सत्यनारायण का व्रत कर भव्य धार्मिक उत्सव का अायोजन किया। वहां उपस्थित व्यक्ति भगवान विष्णु का कीर्तन श्रवण कर रहे थे। तभी साधु वणिक नामक एक धनी वैश्य अाया। उसने अाश्चर्यचकित हो राजा-रानी से वहाँ भगवान विष्णु की पूजा करने के विषय में पूछा।
चन्द्रचूड़ बोला, `मान्यवर! हम यहां भगवान सत्यनारायण की पूजा-अर्चना कर रहे हैं। उनके स्मरण मात्र से ही समस्त दुःखों का अंत हो जाता है। उनकी कृपा से भक्तों के समस्त पापों का नश हो जाता है।'
चन्द्रचूड़ की बात सुन कर साधु वणिक विनती भरे स्वर में बोला, `राजन! कृपया मुझे भी इस व्रत की विधि बताएं। यदि भगवान सत्यनारायण पुत्रहीनों को पुत्र प्रदान करते हैं तो वे मुझ संतानहीन को भी अवश्य संतान प्रदान करेंगे।' चन्द्रचूड़ ने साधु वणिक को भगवान सत्यनारायण के व्रत का सम्पूर्ण विधान समझा दिया।
घर लौट कर साधु वणिक ने अपनी पत्नी लीलावती को इस व्रत के बारे में बताया। उसके बाद उसने प्रण किया कि जिस दिन उसके घर संतान जन्म लेगी, उसी दिन वह सत्यनारायण का व्रत करेगा। कुछ ही दिनों में लीलावती गर्भवती हो गई और उचित समय अाने पर उसने एक कन्या को जन्म दिया। उस कन्या का नाम कलावती रखा गया।
कन्या के जन्म के बाद, एक दिन लीलावती ने अपने पति साधु वणिक को उसके संकल्प के विषय में बताया और सत्यनारायण व्रत करने को कहा। उसकी बात अनसुनी करते हुए वह बोला, `प्रिया! मुझे अपना संकल्प अच्छी तरह याद है और मैं उसे अवश्य पूर्ण करूंगा। किंतु अभी मुझ पर काम का अधिक बोझ है। व्यापार दिनोंदिन बढ़ रहा है और काम के लिए मुझे बाहर जाना पड़ेगा। अतः अब मैं कलावती के विवाह के बाद ही भगवान सत्यनारायण का व्रत करूंगा।'
धीरे-धीरे अनेक वर्ष बीत गए। कलावती युवा हो गई। साधु वणिक ने शंखपति नाम युवक से उसका विवाह कर दिया और उसे भी अपने व्यापार में शामिल कर लिया।
लीलावती ने पुनः पति को उसके प्रण की याद दिलवाई और उसने पुनः उसकी बात टाल दी। साधु वणिक द्वारा व्रत का तिरस्कार होते देख भगवान सत्यनारायण क्रोधित हो गए। उन्होंने उसे घोर कष्ट भोगन का शाप दे दिया। कुछ दिनों के बाद साधु वणिक और शंखपति विभिन्न नगरों में व्यापार करते हुए, समुद्र के निकट स्थित रत्नपुर नामक नगर में पहुंचे। वहां का राजा चन्द्रकेतु था। ससुर-दामाद वहीं व्यापार करने लगे।
एक बार एक चोर राजकोष से धन चुरा कर भागते-भागते उस स्थान पर जा पहुंचा, जहां साधु वणिक तथा शंखपति ठहरे हुए थे। सिपाही उसके पीछे लगे हुए थे। इसलिए उसने चोरी के धन को चुपके से साधु वणिक के पास रख दिया और स्वयं वहां से भाग गया।
सिपाहियों ने जब साधु वणिक के पास राज-धन पड़ा देखा तो उसे ही चोर समझ कर राजा के समक्ष उपस्थित कर दिया। राजा चन्द्रकेतु ने उन दोनों को कठोर कारावास का दण्ड देते हुए, उनका सारा धन राजकोष में जमा करवाने की अाज्ञा दे दी।
इधर साधु वाणिक के घर में भी चोरी हो गई। चोर उसका सारा धन चुरा कर ले गए। घर में अन्न, धन और वðा का अभाव हो गया। दोनों मां-बेटी भिक्षा मांग कर जीवन व्यतीत करने लगीं।
एक दिन भूख-प्यास से व्याकुल कलावती एक ब्राह्मण के घर भिक्षा मांगने गई। वहां भगवान सत्यनारायण की व्रत-कथा चल रही थी। कलावती ने वहां बैठ कर कथा सुनी। पूजा समाप्ति के उपरांत ब्राह्मण ने उसे प्रसाद दिया।
घर अाकर उसने अपनी माता को भगवान सत्यनारायण के व्रत की बात बताई। तब लीलावती दुःखी स्वर में बोली, `पुत्री! तुम्हारे जन्म से पूर्व तुम्हारे पिता ने भी भगवान सत्यनारायण का व्रत करने का संकल्प किया था, लेकिन उसे पूरा नहीं किया। शायद इसी का परिणाम अाज हमें भोगना पड़ रहा है।'
माता की बात सुन कर कलावती बोली, `मां! यदि पिताजी व्रत करना भूल गए हैं तो हम उनका संकल्प पूरा करेंगे। मुझे विश्वास है कि भगवान सत्यनारायण हमारी पूजा स्वीकार कर हम पर कृपा करेंगे।'
कलावती की बात मान कर लीलावती ने अपने सगे-संबंधियों के साथ भगवान सत्यनारायण की पूजा-अाराधना की।
भगवान् सत्यनारायण प्रसन्न हो गए। उन्होंने उसी रात राजा चन्द्रकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर साधु वणिक और शंखपति को छोड़ने का देश दिया।
प्रातःकाल चन्द्रकेतु ने साधु वणिक और शंखपति से अपने अपराध की क्षमा-याचना कर उनका सारा धन लौटा दिया और उन्हें सम्मानपूर्वक अपने नगर से विदा किया। दोनों प्रसन्नतापूर्वक अपने नगर की ओर प्रस्थान करने के लिए नाव में अपना धन रखने लगे।
इतने कष्ट भोगने के बाद भी साधु वणिक को अपना संकल्प याद नहीं अाया। तब भगवान सत्यनारायण तपस्वी का वेश बना कर वहां प्रकट हुए और बोले, `हे दयालु सज्जन! अापकी नाव में क्या रखा है?'
भगवान सत्यनारायण ब्राह्मण रूप में साधु वणिक की सत्यनिष्ठा की परीक्षा ले रहे थे। साधु वणि्