रह सकता है यौवन अाजीवन अक्षुण्ण

pravachan

बुढ़ापा नहीं रोका जा सकता, लेकिन यौवन को अाजीवन अक्षुण्ण रखा जा सकता है। प्रकृति के नियम हर पदार्थ और हर प्राणी को जन्मने, बढ़ने, परिपक्व होने, ढलने और नष्ट होने की मर्यादा में जकड़े हुए हैं।
फिर यौवन वैसे अक्षुण्ण रह सकता है? इस प्रश्न के उत्तर में यह समझना चाहिए कि यौवन शारीरिक नहीं, किन्तु मानसिक स्थिति है, उस पर शरीर पर पड़ने वाले प्रकृति-प्रवाह का प्रभाव नहीं पड़ता। मनः क्षेत्र स्वसंचालित है, उसमें उतार-चढ़ाव भीतरी कारणों से अाते हैं, बाहरी कारणों से नहीं। बच्चों का अविकसित मस्तिष्क अपने क्रम से परिपक्व होता है, पर वयस्क व्यक्ति की मानसिक स्थिति उसके अपने चिंतन पर निर्भर रहती है। सामान्य लोगों की दृष्टि में जो परिस्थितियां अापत्ति की श्रेणी में गिनी जा सकती हैं, उनमें कोई मनस्वी व्यक्ति पूर्ण संतुष्ट और प्रफुल्लित रह सकता है। इसके विपरीत सार्वजननीय मान्यता जिन साधनों को वैभव मानती है, उनके प्रचुर मात्रा में रहते हुए भी कोई व्यक्ति मानसिक विसंगतियों में ग्रसित होकर अत्यंत दुःखी और उद्विग्न रहता देखा जा सकता है।
चेहरे पर भले ही झुर्रियां पड़ गई हों, चमड़ी लटक गई हो, बाल सफेद पड़ गये हों और दांत उखड़ गये हों, इन लक्षणों को देख कर यह कहा जा सकता है कि यह बूढ़ा अादमी है। ऐसे व्यक्तियों की इन्द्रियां शिथिल पड़ सकती हैं और श्रम शक्ति घट सकती है, पर फिर यौवन अपने स्थान पर अविचल खड़ा रह सकता है और उसकी स्थिरता में मृत्यु पर्यन्त कोई अांच नहीं अा सकती। जो अपने को भरा-पूरा अनुभव करता है, वह जवान है, जिसे अपने साधन-उपकरण सामान्य निर्वाह के लिए पर्याप्त मालूम पड़ते हैं और असंख्यों की तुलना में अपनी उपलब्धियों को बढ़ी-चढ़ी मानता है, उस संतुष्ट व्यक्ति के चेहरे पर हल्की मुस्कान दिखाई पड़ेगी। वस्तुतः यही जवानी की निशानी है।
शरीर से मांसल और नख-शिख की बनावट से अाकर्षक होते हुए भी कोई तरूण व्यक्ति नितांत बूढ़ा हो सकता है, जिसका अाशा-दीप बुझ गया जिसे अपने चारों ओर अंधकार ही दिखता है, जिसे अपने साधन अपर्याप्त मालूम पड़ते हैं, जिसे स्वजन संबंधियों से अनेक शिकायतें हैं, वह हारा और खीजा दिखाई पड़ेगा। सरलता विदा हो गई होगी और असंतोष का भार लद गया होगा, वह मानसिक दृष्टि से बूढ़ा है। संपर्व में अाने पर सहज ही पता चल जाता है कि यह अर्धमूर्च्छित बूढ़ा अादमी नीरस और कर्वश जीवन जी रहा है। उसके घनिष्ट संपर्व में रहने की किसी की भी इच्छा नहीं हो सकती।
जो वर्तमान से निर्भय है, अात्म-विश्वास जिसे भरोसा दिलाता है, वह बड़ी से बड़ी कठिनाई से भी साहसपूर्वक लड़ने में अानंद ले सकता है। जो भविष्य को उज्ज्वल संभावनाअों से भरा-पूरा देखता है, जिसे अपने वर्तमान साधन असंतोषजनक नहीं लगते, जो कुछ कर गुजरने के ताने-बाने बुनता रहता है, वह जवान है। भले ही ऐसे व्यक्ति की उम्र कितनी ही क्यों न हो चुकी हो। भले ही वह मृत्यु के निकट जा पहुंचा हो।
यह ठीक है कि परिस्थितियां अादमी को झुका देती हैं, पर इससे भी ज्यादा यह बात ठीक है कि मनस्वी व्यक्ति अपनी अांतरिक परिपक्वता के कारण बाहरी क्षेत्र की किसी भी चुनौती का सामना कर सकते हैं और अपने सरस यौवन को अाजीवन अक्षुण्ण बनाये रख सकते हैं।

-    पं. श्रीराम शर्मा अाचार्य
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