कब बरसेगी मर्यादा पुरूषोत्तम की कृपा

जैसे-जैसे 2019 नजदीक अा रहा है, वैसे-वैसे वोट खींचने वाले मुद्दों की तलाश और पड़ताल का घनघोर वातावरण बनना शुरू हो गया है। कई दशकों से जन भावनाअों को उद्वेलित कर रहा राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण का मुद्दा भी इसीलिए नए तेवर के साथ, विकास-फिकास को पीछे धकेल कर ऊपर अाने की कोशिश करता दिखाई दे रहा है। इसकी एक झलक कुछ दिन पूर्व अयोध्या में हुए संतों के सम्मेलन में उस समय देखने को मिली जब, शायद उत्तर-प्रदेश के मुख्यमंत्री महोदय की कल्पना के विपरीत पूर्व सांसद और राम जन्मभूमि न्यास के वरिष्ठ सदस्य डॉ. रामविलास दास वेदांती अचानक बिफर पड़े।

डॉ. वेदांती के इन दुर्वासा वचनों से किसी का भी सकते में अा जाना स्वाभाविक था कि- भारतीय जनता पार्टी अगर राम मंदिर का निर्माण नहीं कराएगी, तो उसका रसातल में जाना तय है। उनका ताल ठोंककर यह कहना केवल भावावेश प्रतीत नहीं होता कि 2019 से पहले, बिना कोर्ट के अादेश के राम मंदिर का निर्माण शुरू होगा, ठीक वैसे ही, जैसे विवादित ढांचा ढहाया गया था। उनके ये वचन जहाँ एक ओर राजनीति से हताशा और मोहभंग का पता देते हैं, वहीं दूसरी ओर क्या इनमें मंदिर निर्माण से जुड़ी नई राजनीति की अाहट नहीं सुनाई पड़ रही है? यह शायद किसी बड़ी कार्रवाई का इशारा है, संदेश भी। उन्होंने याद दिलाया कि बाबरी मस्जिद का ध्वस्त ढाँचा वास्तव में राम मंदिर का खंडहर था, जिसे इसीलिए गिराया गया था कि उसके स्थान पर भव्य मंदिर बन सके।

इस पर उत्तर-प्रदेश के मुख्यमंत्री महोदय के कान खड़े होने ही चाहिए थे। उन्हें शायद इतने तीखे बोलों की उम्मीद नहीं थी। ऐसे में उन्होंने महंत मुद्रा अखि़्तयार करके शांति स्थापित करने की कोशिश की। उस वक़्त वही उचित भी था। योगी अादित्यनाथ ने तर्जनी दिखाते हुए याद दिलाया कि सरकार लोकतांत्रिक मर्यादाअों से बँधी हुई है और राम तो मर्यादा पुरूषोत्तम तथा इस ब्रह्मांड के स्वामी हैं। जब रामजी की कृपा होगी तो अयोध्या में मंदिर बनकर ही रहेगा। उन्होंने राम-कृपा पर संदेह करने वाले संतों से कुछ दिन और धैर्य रखने को कहा और उपदेश दिया कि अाशावाद पर दुनिया टिकी हुई है। मौके को राम का नाम लेकर सँभाल तो लिया गया, लेकिन इस नए घटनाचक्र और संतों के बिफरे हुए मूड के कारण खटका तो लगा ही रहेगा। जानकारों का तो यह भी कहना है कि इस अवसर का लाभ वक्फ बोर्ड अपने ढंग से उठाने की कोशिश कर सकता है, ताकि सरकार और संतों के बीच तनातनी बनी रहे और मूल मसला वैसे ही लटका रहे जैसे जमाने से लटका है। इसीलिए उधर से यह बयान अाया है कि कुछ लोग धर्म के नाम पर सीएम को टॉर्चर कर रहे हैं!

वैसे एक बार फिर यह विचार भी सामने अा रहा है कि बाबरी मस्जिद का नाम ज़रूर बाबरी रहा है, लेकिन उसका बाबर से कुछ लेना-देना नहीं। पूर्व अाईपीएस और कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय के पूर्व उपकुलपति किशोर कुणाल की पुस्तक `अयोध्या रिविज़िटेड' के हवाले से याद दिलाया जा रहा है कि अयोध्या में राम मंदिर था, इसके प्रमाण हैं और इसके भी जरूरी साक्ष्य उपलब्ध हैं कि `इसे औरंगजेब के सौतेले भाई फिदायी खान ने उसके शासनकाल में तुड़वाया था। न तो बाबर ने उसे बनवाया और न ही मंदिर तुड़वाया। बाबरी मस्जिद बाबर ने नहीं बनवाई थी। बाबर कभी अयोध्या नहीं गया। जो शिलालेख मस्जिद पर लगे थे, वे फर्जी हैं।' इस किताब के मुताबिक 1858 से पहले यहाँ नमाज़ और पूजा दोनों की जाती थीं, लेकिन 1858 के बाद इसे रोक दिया गया। ये तथ्य इस मसले को हल करने में सहायक हो सकते हैं।

इस बीच, `बैठे-ठाले कुछ तो करना ही है', जैसे विचार से प्रेरित शरद यादव महोदय ने भी पत्रकारों के समक्ष यह कहकर नई चिन्गारी छोड़ दी है कि- राम जन्मभूमि में उनकी कोई श्रद्धा नहीं है तथा वे ज़िंदा अादमी को पूजते हैं। मतलब साफ है कि राजनीति चालू है और मंदिर का काम अटका हुअा है। जानकारों का यह भी कहना है कि अब इन तिलों में तेल नहीं बचा है। इसलिए बुद्धिमानी इसी में है कि इन्हें राम-कृपा के हवाले छोड़कर कुछ नए मुद्दे तलाशे जाएँ।
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