यह सुयोग व्यर्थ न जाने पाए

संधि-वेला की महत्ता, प्रेरणा एवं अावश्यकता को जिसने भी समझा, उन्हें दैनिक सुख-सुविधा में कटौती करनी पड़ी। प्रतिकूलताअों से भी टकराना पड़ा, पर इसके फलस्वरूप उन्होंने जो पाया उसे अविस्मरणीय ही कहा जा सकता है।

समर्थ शक्तियों का परिवर्तन प्रत्यावर्तन संक्रांति काल कहलाता है। राज्य पलटते हैं तो भारी उथल-पुथल मचती है। दिन और रात्रि का मिलना-बिछुड़ना संध्या काल कहलाता है। उन घड़यिं की अनेक दृष्टियों से अपनी महत्ता है।

संध्या काल को अात्मिक और बौद्धिक दृष्टि से असामान्य ही माना जाता है। शताब्दियों का परिवर्तन भी प्रकारान्तर से युग-परिवर्तन जैसी संभावनाअों से भरा-पूरा होता है। प्रसव-काल में पीड़ा और प्रसन्नता का कैसा अद्भुत संयोग रहता है, इसे सभी जानते हैं।

देवासुर-संग्राम की अपने समय में अाश्चर्यचकित करने वाली प्रतिक्रिया होती रही है। उन दिनों महाकाल को अवतार लेकर समस्या का समाधान करना पड़ा। अवतार धारण करने की समर्थ सत्ता की ऐसे ही अवसरों पर अावश्यकता पड़ी।

लंका को परास्त करने और राम-राज्य के रूप में सतयुग की वापसी संभव करने के लिए जो मध्यान्तर था, उसमें जिनको भी प्रमुख भूमिका निभानी पड़ी, वे अजर-अमर हो गये। सुग्रीव के सेवक के रूप में ऋष्यमूक पर्वत पर रहने वाले हनुमान को समुद्र लांघने, लंका जलाने, पर्वत उखाड़े जाने जैसी कितनी ही दिव्य सेवाएँ हस्तगत हो गई थीं। हनुमान ही नहीं केवट, शबरी, गिलहरी भी इतिहास में स्वार्णिम अक्षरों में लिखे जाने योग्य बन गये थे।

द्रौपदी के चीर-हरण के समय असहाय से बने अर्जुन द्वारा किसी महान शक्ति का प्रयोजन पूरा करने के लिए कटिबद्ध होने पर महाभारत विजेता की गौरव-गरिमा उपलब्ध हुई थी। उनके सारथी बनने में कृष्ण ने अपने को धन्य माना।

संधि-वेला की महत्ता, प्रेरणा एवं अावश्यकता को जिसने भी समझा, उन्हें दैनिक सुख-सुविधा में कटौती करनी पड़ी। प्रतिकूलताअों से भी टकराना पड़ा, पर इसके फलस्वरूप उन्होंने जो पाया उसे अविस्मरणीय ही कहा जा सकता है।

भगवान अभीष्ट परिवर्तन के लिए समुचित योजना बना चुके हैं। साधन भी जुटा चुके हैं, पर वे उस क्रिया-प्रक्रिया को संपन्न करने का श्रेय ऐसे लोगों को देना चाहते हैं, जो अादर्शों के प्रति निष्ठावान होने की प्रतिभा एवं प्रमाणिकता का परिचय दे सकें।

बदले में क्या मिल सकेगा, इसे सामान्य से ऊंचा उठ कर असामान्य बने महामानवों की जीवन गाथाअों का स्मरण करते हुए, सहज ही समझा जा सकता है। समय को पहचानना और अवसर को न चूकना ही जाग्रतों, जीवितों के लिए अभीष्ट है। इस सुयोग को हाथ से न जाने देने में ही बुद्धिमत्ता है।

-पं. श्रीराम शर्मा
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